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________________ 44 अनेकान्त/54/3-4 को धरता हुआ बंध मोक्ष अवस्था को धारण करता है (बंध मोक्ष तो दरअसल कर्म परमाणुओं का होता है ) । शुद्धनय शुद्धनयेन केवल मृण्मात्रवन्निरुपाधि स्वभावम् शुद्ध नय कर उपाधि रहित स्वभाव केवल ऐसे हैं जैसे मृत्तिका होती है। नयों का उपसंहार करते हुए अमृतचन्द्र लिखते हैं- "यह आत्मा नय और प्रमाण से जाना जाता है जैसे एक समुद्र जब जुदी-जुदी नदियों के जल से सिद्ध किया जाए तब गंगा-यमुना आदि के सफेद नीलादि जलों के भेद से एक-एक स्वभाव को धरता है, उसी प्रकार यह आत्मा नयों की अपेक्षा एक-एक स्वरूप को धारण करता है और जैसे वही समुद्र अनेक नदियों के जलों से एक ही है, भेद नहीं, अनेकान्त रूप एक वस्तु है. (न नदियां अभूत हैं न समुद्र) उसी प्रकार यह आत्मा प्रमाण की विवक्षा से अनंत स्वभाव मय एक द्रव्य है। इस प्रकार एक अनेक नय प्रमाण से सिद्धि होती है, नयों से एक स्वरूप दिखलाया जाता है, प्रमाण से अनेक स्वरूप दिखलाए जाते हैं। इस प्रकार स्यात् पद की शोभा से गर्भित नयों के स्वरूप से अनेकान्त रूप प्रमाण से अनंत धर्म संयुक्त शुद्ध चिन्मात्र वस्तु का जो पुरुष निश्चय सिद्धान्त करते हैं वे साक्षात् आत्मस्वरूप के अनुभवी होते हैं।" (प्रवचनसार टीका) इतना होते हुए भी अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में व्यवहार को जो अभूतार्थ (असत्यार्थ ) कहा है - इसकी एक वजह यह लगती है कि व्यवहार को अभूतार्थ कहने के बाद प्रवचनसार की टीका में उनने विषय को और सोचा व इस खूबी से स्पष्ट किया है कि जिससे लगता है कि वे एक सतत अध्ययनरत ऋषि थे, एकान्त के हठ से हटकर, अनेकान्तवादी, टीकाकार व लेखक थे। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय (गा. 225) के अंत में बड़े ही मनोहारी तरीके से उनने अनेकान्त (व्यवहार व निश्चय के समन्वय) को यों हृदयंगम कराया है एकेनाकर्षयन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अंतेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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