________________
अनेकान्त/54/3-4
णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्याणं॥
कुन्दकुन्दभारती-व्यवहारनय निश्चय के द्वारा प्रतिषिद्ध है, वे मुनि ही निर्वाण प्राप्त करते हैं जो निश्चय नय के आश्रित हैं।
रूपचन्द कटारिया-निश्चय नय में व्यवहार नय का प्रतिषेध नहीं है। निश्चय नय में स्थित मुनि निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
जयसेन-व्यवहार नय निश्चय नय का साधक है इसलिए प्रारम्भ में प्रयोजनवान् है ही। मेरे विचार में जो साधक है वह वर्जित नहीं हो सकता। इसलिए कटारिया जी का अन्वयार्थ सही जान पड़ता है। जय धवला 1/7 में तो कहा ही है कि-ण च ववहार णओ चप्पलओ अर्थात् व्यवहार नय झूठा नहीं होता। किसी मनीषी ने यह सही कहा है कि सुवर्ण पाषाण की मानिंद पहले व्यवहार की प्राप्ति के पश्चाद् ही सुवर्ण की भांति निश्चय को प्राप्त किया जा सकता है। __कुछ समय पहले मैंने अनेकान्त में ही एक लेख में कहा था कि यदि व्यवहार को अभूतार्थ भी मानें तो इसका अर्थ असत्य नहीं, आशिक सत्य होगा। यही मन्तव्य ज्ञानसागरजी का भी रहा है, परन्तु अब पुनर्विचार करने पर यह मत बनता है कि व्यवहार भूतार्थ है और इसलिए व्यवहार भी सत्यार्थ है, शुद्ध है। कटारिया संस्करण लगता है ठीक ही कहता है। मेरे ख्याल में शायद इसीलिए अमृतचन्द्र ने शुद्धनय और निश्चय नय की अलग-अलग व्याख्या की
निश्चयनय
निश्चय नये न केवल बध्य मानमुच्यमान बंधमोक्षो चित स्निग्ध रुक्षत्व गुण
परिणत परमाणु वद् बन्धमोक्षयोर द्वैतानुवर्ति निश्चय नय कर आत्मा पर द्रव्य से बंधमोक्षावस्था की दुविधा को नहीं ध गरण करता, केवल अपने ही परिणाम से बंध मोक्ष अवस्था को धरता है, जैसे अकेला परमाणु बंध मोक्ष अवस्था के योग्य अपने स्निग्ध, रुक्ष, गुण परिणाम