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ववहारो भूदत्त्थो
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अनेकान्त /54/3-4
जस्टिस एम.एल. जैन
"जो सत्यारथ रूप सुनिश्चय, कारण सो व्यवहारो "
- छहढाला, ढाल तीसरी
इस लेख की पृष्ठभूमि है - श्री रूपचन्द कटारिया द्वारा सम्पादित, वीर सेवा मन्दिर के तत्त्वावधान में प्रकाशित समय पाहुड का प्रथम संस्करण, सन्
20001
भूत सृष्टि का एक अंग है मानव ! मानव में होता है ऐसा दिमाग जिसका प्रतिपल विकास, मार्जन परिमार्जन होता आया है। यह (नाम कर्म जनित ) ऐसे पुद्गलों का संघात है जिनमें सोचने की शक्ति निहित होती है जो तब तक ही काम करती है, जब और जब तक उनमें आत्म प्रदेश (जीव) बने रहते हैं। यह बात पाँच इंद्रियों से आगे की है जिसे अतींद्रिय कहते हैं और इसे ही मन भी कहते हैं और आत्म प्रदेशों के पारिमाणिक भाव भी यही हैं। इसकी एक खूबी यह है कि वह अन्य बातों के साथ यह भी जानना चाहता है कि आखिर वह स्वयं है क्या! दूसरों के मरण से इतना उसकी समझ में आया कि जीव और अजीव के संयोग से बना है, या बना रहता है जीवन और दिमाग है उसी जीवन का एक हिस्सा। अब यह जीव है क्या चीज़ । क्यों और कैसे होता है अजीव से जीव का संयोग-वियोग । जब यह वह सोचने लगा तो दिमाग में अलग-अलग सोच आने लगे। एक चिन्तक ने कहा कि यह सब करती है कोई जीवोत्तर शक्ति और उसे उसने नाम दिया, ईश्वर । इसलिए उस शक्ति को जानना और खुश रखना जरूरी हो गया और यदि ईश्वर ही सब कुछ करता है, तो फिर उसे कई नाम दिए गए। एक अन्य चिन्तक ने आगे सोचा कि यदि ऐसा है तो फिर इस ईश्वर का कर्ता कौन? इसका जवाब न मिलने पर आगे उसने सोचा कि ईश्वर एक कल्पना मात्र है और दर असल जीव स्वयं ही सब कुछ है। वही है मूल और जब वह अपने ही परिणामों से अजीव से सम्पर्क