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अनेकान्त/54/3-4
कहकर कदाचित् उन लोगों का मुखमुद्रण किया है, जो ऐसी आशंका करते हैं कि क्या आर्यिकायें सिद्धान्त ग्रन्थों का प्रणयन कर सकती हैं? 3. क्लिष्ट संस्कृत ग्रन्थों पर हिन्दी टीका .
माताजी ने मौलिक संस्कृत साहित्य एवं संस्कृत टीका क प्रणयन के अतिरिक्त जैन विद्वानों में 'कष्टसहस्री' के नाम से प्रसिद्ध आचार्य विद्यानन्द द्वारा प्रणीत 'अष्टसहस्री' पर 'स्याद्वादचिन्तामणि' नामक हिन्दी टीका की रचना करके न्यायशास्त्र के जिज्ञासुओं का मार्ग प्रशस्त किया है। लगभग 1500 पृष्ठो के तीन भागों में प्रकाशित अष्टसहस्री टीका पूज्य माताजी ने यद्यपि स्वान्तःसुखाय लिखी है', तथापि इससे न केवल जैन दार्शनिकों-नैयायिकों का अपितु सभी भारतीय दार्शनिकों-नैयायिकों का अत्यन्त कल्याण हुआ है। अष्टसहस्त्री जैसे दुष्प्रवेश्य शास्त्र पर हिन्दी टीका माताजी के अगाध वैदुष्य तथा न्याय-व्याकरण आदि शास्त्रों के सूक्ष्मपरिशीलन की तो प्रतीक है ही, उनकी लोकहितकारिणी भावना को भी अभिव्यक्त करती है। 4. संस्कृत ग्रन्थों का हिन्दी पद्यानुवाद
आर्यिका ज्ञानमती जी ने समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, रत्नकरण्डश्रावकाचार, आत्मानुशासन आदि ग्रन्थों का पद्यानुवाद करके उन भावक भक्तों का मार्ग निष्कंटक बना दिया है, जो संस्कृत भाषा के हार्द को समझने में असमर्थ हैं तथा संस्कृत श्लोकों को कष्ठस्थ करना जिन्हें कठिन प्रतीत होता है। माताजी के पद्यानुवादों में मौलिक काव्य की तरह प्रवाह है। इस सन्दर्भ में इष्टोपदेश का एक पद्य द्रष्टव्य है'विपद्भवपदावर्ते पदिकेवातिवायते। यावत्तावद्भवन्त्यन्याः प्रचुराः विपदःपुरः।।12।।
इसके निम्नलिखित पद्यानुवाद को देखें, जिसमें माताजी ने इसके भावों को किस मौलिकता के साथ स्पष्ट किया है
'भवविपदामय आवर्तो में यह पुनः पुनः ही फसता है। जब तक विपदा इक गई नहीं, आ गईं हजारों दुखदाहैं।