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अनेकान्त/54-1 SeacscacassesecacacaIRONICICICIRI आचार्यों ने भी सोनगढ़ तथा कहानजी प्रवर्तित साहित्य को धर्म का मूलोच्छेद करने वाला निरूपित किया था। इतना ही नहीं, मनीषी विद्वान् श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार जी ने कहानजी मत के उदय को जैनधर्म और जैन समाज के लिए अभिशाप मानते हुए आशंका व्यक्त की थी कि यह किसी चौथे सम्प्रदाय की नींव रखी जा रही है- उन्होंने अनेकान्त में लिखा थाआचार्य समन्तभद्र और कुन्दकुन्द का अपमान
कहानजी महाराज के प्रवचन बराबर एकान्त की ओर ढले चले जा रहे हैं। इससे अनेक विद्वानों का आपके विषय में अब यह ख्याल हो चला है कि आप वास्तव में कुन्दकुन्दाचार्य को नहीं मानते और न स्वामी समन्तभद्र जैसे दूसरे महान् जैनाचार्यों को ही वस्तुतः मान्य करते हैं। क्योंकि उनमें से कोई भी आचार्य निश्चय तथा व्यवहार दोनों में किसी एक ही नय के एकान्त पक्षपाती नहीं हुए हैं, बल्कि दोनों नयों का परस्पर सापेक्ष, अविनाभाव सम्बन्ध को लिए हुए, एक दूसरे के मित्र के रूप में मानते और प्रतिपादन करते आये हैं जबकि कहानजी महाराज की नीति कुछ दूसरी ही जान पड़ती है।
कहानजी महाराज अपने प्रवचनों में निश्चय अथवा द्रव्यार्थिक नय के इतने पक्षपाती बन जाते हैं कि दूसरे नय के वक्तव्य का विरोध तक कर बैठते हैं। उसे शत्रु के वक्तव्य रूप में चित्रित करते हुए 'अधर्म' तक कहने के लिए उतारू हो जाते हैं। यह विरोध ही उनकी सर्वथा एकान्तता को लक्षित कराता है और उन्हें श्री कुन्दकुन्द और स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् आचार्यो के उपासकों की कोटि से निकालकर अलग करता है, अथवा उनके वैसा होने का सन्देह पैदा करता है। इसी कारण श्री कहानजी का अपनी कार्यसिद्धि के लिए कुन्दकुन्दादि की दुहाई देना प्रायः वैसा ही समझा जाने लगा है, जैसा कि कांग्रेस सरकार गांधीजी के विषय में कर रही है। वह जगह-जगह गांधी जी की दुहाई देकर और उनका नाम ले लेकर, अपना काम तो निकालती है, परन्तु गांधीजी के सिद्धान्तों को वस्तुतः मानती हुई नजर नहीं आती।