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________________ अनेकान्त/53-2 LOVE 'बीसं तु जिणवरिंदा अमरासुर वंदिदा धुदकिलेसा। सम्मेदेगिरि सिहरे णिव्वाण गया णमों लेसिं॥' अर्थात : 'देव-दानवों से वंदित बीस जिनराजों ने अनादि कालीन दोषों को नष्ट कर सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त किया, उन सभी को मैं नमन करता हूं।' कालांतर में भी श्री शिखरजी की गौरव-गाथा को अनेक श्रद्धावनत भक्ति-रसिक कवियों ने जीवन्त रखा। कविवर द्यानतराय जी की ये पंक्तियां प्रत्येक भक्त के कंठ से गुंजित होकर उनकी श्रद्धा को पुष्ट करती हैं : "एक बार बन्दे जो कोई, ताहि नरक पशु गति नहीं होई' । तीर्थंकरों के अतिरिक्त सम्मेद शिखर से असंख्य मुनिराजों ने भी आत्म-ध्यान लगाकर निर्वाण प्राप्त किया है, इसलिए इस पर्वतराज का कण-कण पूजनीय है, वन्दनीय है। बीसवीं शताब्दी के महान संत पूज्य गणेश प्रसादजी वर्णी को तो यह स्थान इतना भाया कि वह अपने अंतिम समय तक शिखरजी के पादमूल ईसरी में स्थित होकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अविराम चलते रहे। समय बदलता है, आस्था नहीं बदलती। आज भी जैन समाज में शिखरजी के प्रति असीम श्रद्धा है और इसीलिए समाज में उसकी सुरक्षा व विकास के लिए तत्परता विद्यमान है। इसी भावना के अनुरूप शिखरजी-भक्ति के सरल भाषा में कुछ गीत, कीर्तन, आरती व पूजन लोक-गीतों की धुनों के माध्यम से प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया गया है, ताकि समाज के सभी प्रबुद्ध वर्ग इन्हें आसानी से हृदयंगम करके लय-ताल के साथ गाकर शिखरजी के प्रति अपनी आस्था को अधिक प्रभावी बना सकें। शिखरजी की यह गीतांजलि भक्तों के हृदय में तनिक भी धर्म-प्रभावना प्रवाहित कर सकी तो यह प्रयास सफल समझा जाएगा। आपके सुझाव सदैव मेरा मार्गदर्शन करने में सहायक होंगे। -सुभाष जैन %% %% %%%%%%%%% % %%%%
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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