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________________ अनेकान्त / २६ पुद्गल । क्योंकि जीव द्रव्य कायरूप तो है किन्तु अजीव नहीं है और काल द्रव्य अजीव तो है किन्तु कायरूप नहीं है। जितने स्थान को एक अणु घेरता है, उसे प्रदेश कहते हैं और बहुप्रदेशी द्रव्य को अस्तिकाय कहा जाता है। गमन करते हुए जीव और पुद्गलों को जो गमन, हलन चलन करने में सहायक होता है, उसे धर्म द्रव्य तथा जो ठहरते हुए जीव और पुद्गलों को ठहराने में सहायक होता है, उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि जीव और पुद्गल की गति एवं स्थिति धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है । " जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी ने भी इन द्रव्यों का अस्तित्व नहीं माना है । किन्तु वैज्ञानिक Aether और Gravitation Friction के रूप में इन दोनों द्रव्यों की सत्ता नामान्तर से स्वीकार करते रहे हैं । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने धर्म द्रव्य को मछली के गमन में पानी की तरह तथा अधर्म द्रव्य को पथिक के रुकने में छाया की तरह कहा है।' जीव और पुद्गल की गति करने की शक्ति तो उनकी अपनी है, अतः गति के अन्तरंग कारण तो वे स्वयं हैं, किन्तु बाह्य सहायक के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है, वह गति में बाह्य सहायक धर्म द्रव्य है। यदि कोई जीव या पुद्गल गमन न करे तो धर्म द्रव्य उन्हें चलने की प्रेरणा नहीं देता है । जैसे मछली में गमन की शक्ति स्वयं है, किन्तु बाह्य सहायक जल है, उसके बिना मछली गमन नहीं कर सकती है। पर यदि मछली न चले तो जल उसे चला भी नहीं सकता है। इसी प्रकार अधर्म द्रव्य स्थिति में बाह्य सहायक है। जैसे ग्रीष्म ऋतु में मार्ग में ठहरने वाले पथिकों को वृक्ष की छाया बाह्य सहायक होती है, पर वह उसे बलात् रोक भी नहीं सकती है। अतः धर्म एवं अधर्म द्रव्यों को जीव एवं पुद्गल की गति एवं स्थिति का उदासीन निमित्त माना गया है, प्रेरक निमित्त नहीं | प्रेरक निमित्त तो ध्वजा को हिलाने में पवन के समान होते हैं । धर्म एवं अधर्म द्रव्य ऐसे निमित्त नहीं हैं । । धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य यद्यपि प्रेरक निमित्त न होकर उदासीन निमित्त 4. अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः । वही, 5/1. 5. गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः । तत्त्वार्थसूत्र 5/17 6. 'गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाणगमणसहयारी । तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो नेई ।। ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गणजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई ।।' द्रव्यसंग्रह, 17-18 .'
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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