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________________ धर्म और अधर्म द्रव्य -डॉ. सन्तोष कुमार जैन द्रव्य का लक्षण करते हुए जैनदर्शन में उसे सत् या अस्तित्व रूप माना गया है और जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से युक्त हो, उसे सत कहा गया है। नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद एवं पूर्व पर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं। उत्पाद एवं व्यय रूप अवस्था में अखण्ड रूप रहने वाला पदार्थ ध्रौव्य है। मिट्टी के पिण्ड में घट पर्याय प्रकट होना उत्पाद एवं पिण्ड पर्याय का लोप व्यय है। दोनों अवस्थाओं में मिट्टी का बने रहना ध्रौव्य है। द्रव्य में ये तीनों धर्म एक साथ पाये जाते हैं। एक वस्तु में विरोधी धर्मो को सिद्ध करने के लिए जैनदर्शन में, कथन की मुख्यता एवं गौणता स्वीकार की गई है। जिसमें गुण और पर्याय पाई जाती हैं, उसे द्रव्य कहते हैं। जो द्रव्य के आश्रित रहते हैं और जिसमें अन्य गुण नहीं रहते हैं उसे गुण कहते हैं तथा उसके अन्दर जो प्रति समय बदलाव होता रहता है, उसे पर्याय या परिणाम कहते हैं। द्रव्य में तीन अंश रहते हैं-द्रव्य, गुण और पर्याय । वस्तु का नित्य अंश द्रव्य है, सहभावी अंश गुण है और क्रमभावी अंश पर्याय है। अंश कथन से यहाँ स्वभाव अभिप्रेत है। द्रव्य मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं-जीव और अजीव। जिसमें चेतना गुण पाया जाता है, उसे जीव और जिसमें चेतना गुण नहीं पाया जाता है, उसे अजीव कहते हैं। अजीव के पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें कालद्रव्य बहुप्रदेशी नहीं है। शेष चार जीव की तरह बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय कहे गये हैं। काय का अर्थ बहप्रदेशी होना है। अतः जो अजीव भी हों और अस्तिकाय भी हों ऐसे द्रव्य चार ही हैं-धर्म, अधर्म, आकाश और 1. सद्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र, 5/29-30 . 2. गुणपर्ययवद्रव्यम्। वहीं, 5/38. 3. द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः । तदभावः परिणामः । वही, 5/41-42.
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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