SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/६४ यहाँ बताया है कि मोक्षार्थी को पाप को छोड़कर, व्रतों (पुण्य) को आदरपूर्वक निष्ठापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। परम पद मिलने पर व्रत भी अपने आप छूट जाते हैं। उस स्थिति में संकल्प-विकल्प का अभाव है अत: त्याग और ग्रहण के लिए भी अवकाश नहीं है। फिर निश्चय व्रत तो कभी नहीं छूटते। उपर्युक्त प्रकार से सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार पूर्वक निश्चय को मानता है। कुछ लोग कहते हैं कि पहले निश्चय होता है, बाद में व्यवहार। सो निश्चय का अर्थ उद्देश्य या इरादे को ध्यान में रखकर ऐसा कथन करते हैं। यहाँ विचारणीय यह है कि ऐसा इरादा, प्रतीति तो व्यवहार ही है। निश्चय की प्राप्ति होने के बाद व्यवहार की क्या आवश्यकता है? निश्चय व्यवहार के विषय में पं टोडरमल जी का यह छन्द उपयोगी दिशाबोधक है "कोऊ नय निश्चय सों आतमा को शुद्ध मानि, भये हैं सुछंद न पिछाने निज शुद्धता। कोऊ व्यवहार जप तप दान शील को ही, __आतम को हित जानि छांडत न मुद्धता। कोऊ व्यवहार नय निश्चय के मारग को, _ भिन्न-भिन्न पहचान करें निज उद्धता। जब जानें निश्चय के भेद व्यवहार सब, कारण है उपचार मानें तब शुद्धता ।। - थोक वस्त्र विक्रेता सीताराम बाजार, मैनपुरी (उ.प्र.)
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy