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________________ अनेकान्त/२१ कहते है।५ अनर्थदण्ड अर्थात् निष्प्रयोजन पाप के त्याग का नाम अनर्थदण्डव्रत है। __ संसारी प्राणी का सर्वथा निष्पाप या निरपराध हो पाना सभव नहीं है। अपने स्वार्थ, लोभ, लालसा आदि की पूर्ति के लिए अथवा अपने सन्तोष के लिए वह प्रतिक्षण पापपूर्ण कार्यो को करता रहता है। यद्यपि राजकीय कानूनों के अधीन वह इन कार्यो के कारण अपराधी नहीं माना जाता है, तथापि धार्मिक दृष्टि से वह कदाचार का दोषी है। इस प्रकार की प्रवृत्ति से अणुव्रतों में गुणगत वृद्धि नहीं हो पाती है। अत. अणुव्रती श्रावक को उन्नति-पथ पर बढते रहने के लिए दिग्वत एवं देशव्रत के साथ अनर्थदण्डव्रत नामक गुणव्रत का विधान किया गया है। अनर्थदण्ड के भेद - अनर्थदण्डव्रत पाँच प्रकार का माना गया है, क्योंकि अनर्थदण्ड या निष्प्रयोजन पाप पॉच कारणों से होता है। कभी यह पाप आर्त एवं रौद्र ध्यान के कारण होता है, कभी पापपूर्ण कार्यो को करने के उपदेश के कारण होता है, कभी असावधानी वश आचरण के कारण होता है, कभी जीवहिंसा में कारण बनने वाली सामग्री को प्रदान करने से होता है तथा कभी यह पाप कामभोगवर्धक कथाओं आदि के सुनने से होता है। इसी आधार पर अनर्थदण्ड के पांच भेद माने गये हैं-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु.श्रुति और प्रमादचर्या ।' अनर्थदण्डों की संख्या में कहीं-कहीं अन्तर भी दृष्टिगोचर होता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त पांच अनर्थदण्डों में द्यूतक्रीडा को जोडकर छह अनर्थदण्डों का वर्णन किया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा दुःश्रुति को पृथक् अनर्थदण्ड के रूप में उल्लिखित न करके इसका अन्तर्भाव अपध्यान (आर्त्त-रौद्र ध्यान) में करती प्रतीत होती है।
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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