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________________ अनेकान्त/२० त्यागवृति के अनुसार आजीवन दिशाओ मे गमनागमन की मर्यादा निश्चित करके उसके बाहर धर्मकार्य के अतिरिक्त अन्य निमित्त से न जाना दिग्व्रत है। इस व्रत में स्वीकृत मर्यादा को घटाया तो जा सकता है, बढ़ाया नहीं जा सकता है। इसमें भी प्रयोजनानुसार घड़ी, घण्टा, दिन, सप्ताह, माह आदि का. परिमाण करके उसके बाहर धर्मकार्य के अतिरिक्त अन्य निमित्त से न जाना देशव्रत कहा गया है। प्रयोजन के बिना होने वाले निरर्थक पापकार्यो के त्याग को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं। अणुव्रती श्रावक इन तीनों गुणव्रतों के परिपालन में सावधान रहता है। ये तीनों व्रत अणुव्रतों के लिए गुणकारी होते हैं, अत. इन्हें गुणव्रत कहा जाता है। अनर्थदण्डव्रत का स्वरूप - आचार्य पूज्यपाद ने उपकार न होने पर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है, उसे अनर्थदण्ड कहा है और उससे विरक्त होने का नाम अनर्थदण्डव्रत माना है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार दिशाओं की मर्यादा के अन्दर-अन्दर निष्प्रयोजन पाप कारणो से विरक्त होने को अनर्थदण्डव्रत माना गया है। चारित्रसार के अनुसार भी निष्प्रयोजन पापादान के हेतु को अनर्थदण्ड कहा गया है। उसका त्याग अनर्थ दण्डव्रत कहलाता है। पण्डितप्रवर आशाधर ने कहा है कि अपने तथा अपने सम्बन्धियों के किसी काय आदि अर्थात् मन, वचन एव काय सम्बन्धी प्रयोजन के बिना पापोपदेश आदि के द्वारा प्राणियों को पीडा देना अनर्थदण्ड है और उसका त्याग अनर्थदण्डव्रत माना गया है। अन्य श्रावकाचार विषयक चरणानुयोग के ग्रन्थो मे भी कुछ शब्दभेद के साथ अनर्थदण्डव्रत का लगभग यही स्वरूप कहा गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय ने स्पष्टतया प्रतिपादित किया है कि जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सिद्ध होता नहीं है, केवल पाप का बन्ध होता है, उसे अनर्थदण्ड
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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