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________________ दिगम्बर जैन आर्ष परम्परा - डॉ. रमेशचन्द जैन दिगम्बर जैन समाज में अनेक वर्ग हैं, जो सभी अपने को आर्ष परम्परा से सम्बन्धित करते हैं, तथापि उनमे अनेक प्रकार के वैचारिक मतभेद हैं। एक ही परम्परा से सम्बन्ध होते हुए भी उनमे इस प्रकार के मतभेद होना किसी भी विचारवान व्यक्ति को सोचने के लिए प्रेरित करता है। आचार्य समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र को धर्म कहा है तथा सम्यग्दर्शन के लक्षण मे सच्चे देव, शास्त्र और गुरुओं का तीन मूढता रहित, आठ अग सहित और मदरहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा है। तीन मूढताओं मे देवमूढता, शास्त्रमूढता और गुरुमूढताओ का समावेश है। आज स्थिति कुछ ऐसी विषम हो गई है कि श्रावकजनो की तो बात ही क्या, सच्चे देव. शास्त्र. गुरु के तीन मूढता रहित श्रद्धान की बात कतिपय साधु और साध्वीजनो को उचित नही लगती। स्पष्ट रूप से हम वीतरागी देव के उपासक है। वीतरागता की कसौटी पर जो खरा नहीं उतारता, वह कोई भी देव हमारा पूज्य नही है। आज के कतिपय त्यागीजनों को इस बात का भय है कि सच्चे देव. शास्त्र, गुरु की बात यदि उन्होंने स्वीकार कर ली तो वे शासनदेव. जिनकी मूर्ति स्थापित करने तथा जिनकी प्रतिष्ठा करने का उपदेश वे भोले-भाले श्रावक-श्राविकाओं को देते है. केवल उनके मन की कल्पना में ही अवशिष्ट रह जायेगे। शासन-देवता स्पष्ट रूप से सरागी देव हैं उनकी उपासना को किसी भी स्थिति में समुचित नहीं कहा जा सकता, चाहे उसके लिए कितने ही शास्त्र प्रमाण क्यो न उपस्थित किए जायें । सामान्यतया लोग परम्परावाहक होते हैं, किसी समय जनता के अज्ञान से शासन देवताओ की पूजा चल पडी। सम्यग्दृष्टि श्रावक या साधु परम्परा को प्रधानता न देकर परीक्षा और तर्क की कसौटी पर किसी मान्यता को
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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