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________________ 53/3 अनेकान्त/68 ऊपर जिन छह द्रव्यों की चर्चा की गई है तथा जिनसे यह लोक निर्मित बतलाया गया है, उनमें एक काल-द्रव्य भी है। प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय होने वाले परिवर्तन में जो साधारण कारण है वह काल-द्रव्य है। समय काल की सबसे छोटी विभाज्य इकाई का नाम है और इसकी सबसे बड़ी इकाई कल्पकाल है। कल्पकाल की गणना सम्भव न होने से इसे असंख्यात वर्ष भी कहा जाता है। पुनः कल्पकाल दो भागों में विभक्त है-उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल। उत्सर्पिणी काल में जीवों में क्रमशः सुख आदि की वृद्धि होती है और अवसर्पिणी काल में क्रमशः सुख-सुविधाओं आदि का ह्रास होता है। वस्तुतः दोनों में यह अन्तर सुख-दुःखादि के बढ़ते या घटते क्रम का ही है। इनमें से प्रत्येक को पुनः छह-छह आरों या कालों में विभक्त किया गया है। अवसर्पिणी काल में इनकी संज्ञा है-1. सुषमा-सुषमा, 2. सुषमा, 3. सुषमा-दुषमा, 4. दुषमा-सुषमा, 5. दुषमा और अन्तिम 6. दुषमा-दुषमा। इन्हीं छहों को विपरीत क्रम से रखने पर अर्थात् 1. दुषमा-दुषमा, 2. दुषमा, 3. दुषमा-सुषमा, 4. सुषमा-दुषमा, 5. सुषमा और अन्तिम, 6. सुषमा-सुषमा-ये छह उत्सर्पिणी काल के घटक हैं। जैन-परम्परा के अनुसार वर्तमान में अवसर्पिणी काल के अन्तर्गत यह पञ्चम दुषमा-काल चल रहा है और तीर्थ-प्रवर्तन की दृष्टि से यह जैनधर्म के वर्तमानकालीन चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का तीर्थ चल रहा है। अवसर्पिणी काल के इस पञ्चम आरे के समाप्त होने के पश्चात् छठा आरा प्रारम्भ होगा। इस छठे आरे (काल) के प्रारम्भ होते ही लोग अनार्यवृत्ति को धारणकर हिंसक हो जाते हैं। तदनन्तर जब उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होता है तब श्रावण कृष्णा प्रतिपत् से सात सप्ताह अर्थात् उनचास दिनों तक विभिन्न प्रकार की वर्षा होती है और सुकाल पकता है। इस अवधि में अपने आयुष्यकर्म के फलस्वरूप विजयार्द्ध पर्वत की गुफाओं में छिपकर बचे हुये पुण्यशाली जीव बाहर आकर धर्मधारण करते हैं, जिससे अहिंसक आर्य-वृत्ति का उदय होता है। इस प्रकार यह क्रम निरन्तर चलता रहता है और संसारी जीव अपने-अपने कर्मानुसार पुण्य-पाप का फल भोगते हुये जीवन-मरण को प्राप्त होते हैं तथा अनन्तकाल तक भवभ्रमण करते हैं। जो जीव तीव्र पुण्योदय के कारण तपश्चरण करते हुये वीतरागता को प्राप्त होते हैं वे काललब्धि आने पर अष्टकर्मों का नाशकर
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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