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अनेकान्त/१४
करने वाली गाथाएं परम्परित और पूर्वापर दोष रहित है। अतः उन गाथाओं के स्थान पर इन गाथाओं का ही पाठ करना आगम सम्मत है, जैसाकि भगवती आराधना की निम्न गाथाओं से स्पष्ट है
सम्मादिट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयणं तु सहहइ। सदहइ असन्मावं अयाणमाणो गुरु णियोगा।। सुत्ता दो तं सम्मं दरिसिजं तं जदा ण सद्दहदि।
सो चेव हवदि मिच्छादिहि जीवो तदो पहुदि।। "32-33" . अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान करता है और अज्ञान भाव से नहीं जानता हुआ। असद्भाव का भी गुरु के नियोग से श्रद्धान करता है जब वह सूत्र से अच्छी तरह से दरशाए हुए उस सद्भाव का श्रद्धान नहीं करता है तब वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
टीकाकारों ने प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमण से विलक्षण अप्रतिक्रमण को अमृतकुम्भ कहा है जबकि बन्ध अधिकार की अंतिम गाथा में राग, दोष, कषायरहित जीव को अप्रतिक्रमण का अकारगो (अकर्ता) कहा है। अतः राग-दोष-कषाय रहित जीव प्रतिक्रमणमय होने से अमृतकुम्भ है और प्रतिक्रमण का कर्ता है।
इसी अधिकार में चैतन्यभाव को प्राप्त करने का साधन रूप प्रज्ञा का वर्णन आया है, अतः वह प्रज्ञा ही अप्रतिक्रमण व प्रतिक्रमण से विलक्षण अभेद रत्नत्रय रूप होना चाहिये। वह प्रज्ञा ही जीव को केवलज्ञान तक की यात्रा कराती है-ऐसा उन गाथाओं से प्रतिभासित होता है। श्रमणाचार में समस्त जिनवरों को नमस्कार किया है। उसमें प्रज्ञा श्रमण को भी नमस्कार किया है जबकि अंप्रतिक्रमण श्रमण को नहीं किया है। गाथा में प्रतिक्रमण के साथ शुद्धि पद होने से वह अमय कुम्भ है और अप्रतिक्रमण के साथ अशुद्धि पद होने से विषकुम्भ होना चाहिये।
श्रुतकेवली ने मोक्षाधिकार में बन्ध और आत्मा के स्वभाव को जानकर प्रज्ञा द्वारा छेदने की प्रेरणा दी है और श्रमणाचार में सर्वश्रमणों को नमस्कार किया है। उसमें प्रज्ञा श्रमणों को भी नमस्कार किया है। इसके विपरीत प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमण से विलक्षण अप्रतिक्रमण श्रमण को कहीं पर भी नमस्कार नहीं किया है। अतः टीकाकारों द्वारा प्रतिपादित प्रतिक्रमण/प्रतिक्रमण से विलक्षण अप्रतिक्रमण कौन-सा है-यह चिन्तनीय है।
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