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________________ अनेकान्त/१३ प्रतिक्रमण में कर्मों के अकर्तत्व का भाव है और वह अमृतकुम्भ है। इसके विपरीत अप्रतिक्रमण कर्मों का कर्ता है और वह विषकुम्भ है जबकि गाथा में इसके विपरीत कहा है। सम्यग्दृष्टि के प्रतिक्रमण निर्जरा रूप है। कदाचित् किसी शुभोपयोगी श्रमण के करुणा भाव से पुण्यबंध हो जाय तो वह तीर्थंकर प्रकृति इत्यादि रूप होता है जो निर्वाण का हेतु है और परम्परा से अमृतमयी मोक्ष को प्राप्त कराता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण को साक्षात् व परम्परा से अमृतकुम्भ ही जानना चाहिये। यह प्रतिक्रमण इतना उपयोगी और महत्वपूर्ण है कि यदि कोई मिथ्यादृष्टि भी इसके धारण से अपने पापों से निवृत्ति पाकर व्रत-समिति का आचरण करता हुआ मन्द कषायी होता है और कदाचित् वह अपने पुण्य के प्रभाव से समवसरण में जाकर सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है और अन्ततः मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त हो सकता है। इसी दृष्टि को रखते हुए समय पाहड़ मोक्षधिकार में "शेयादि अवराहे" आदि गाथाओं में अव्रतभाव को बंधन का मूलक बतलाते हुए उससे वह वस होता है और इसके विपरीत संवर भाव विशुद्धि मूलक होने से वह अवस होता है अतः अवस भाव संवर विशुद्धि रूप है और उसी से कर्मों की निर्जरा होकर जीव मोक्ष को प्राप्त होता है। दैवयोग से समय पाहुड़ के मूलपाठ का अध्ययन करते समय हमें इन गाथाओं के स्थान पर श्रवणवेलगोल स्थित ताड़पत्रीय प्रति में निम्न चार गाथाएं प्राप्त हुई हैं पडिकमणं पडिसरणं पडिहारो धारणा णियत्तीय य। जिंदा गरूहा सोही अट्टविहो अमयकुंभो दु।। अघडिकमणं अघडिसरणं अपरिहारो अधारणा चेव । अणियत्ति य अणिंदा गरूहा सोही अट्ठविहो विसकुंभो।। पडिकमणं पडिसरण पडिहारो धारणा णियत्ती य। जिंदा गरुहा सोही अट्ठविणा णि-सविसकुंभो।। अघडिकमणं अघडिसरण अघडिहारो अधारणा चेव। अणियत्ति य अणिंदा अरुहा सोही अवदकुम्भो।। प्रथम दो गाथाओं को समय पाहड़ के दोनों टीकाकारों ने उदधत किया है। उनको ये गाथाएं परम्परा से प्राप्त थी तथा इसके बाद की दोनों गाथाएं पूर्व गाथाओं के समर्थन में हैं। इस प्रकार ये प्रतिक्रमण को अमृतकुम्भ प्रतिपादित
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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