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53/3 अनेकान्त/49 ध्यान कर उसके स्वरूप पर विचार करता है और रूपातीत ध्यान में सिद्ध परमेष्ठी के समान अपने शुद्धस्वरूप का विचार किया जाता है।
ध्यान के लिये ध्याता को सर्वप्रथम राग, द्वेष और मोह का त्यागकर अपने चित्त को निर्मल करना आवश्यक है।" आचार्य नेमिचन्द्र ने बृहद् द्रव्यसंग्रह में पदस्थ ध्यान का विस्तृत विवेचन करते हुए पिंडस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का भी निरूपण किया है। पदस्थ ध्यान का वर्णन करते हुए वे कहते हैं
पणतीससोल छप्पणचदुदुगमेगं च जवह ज्झाएह। परमेट्ठिवाचियाणं अण्णं व गुरुवएसेण ।।2
पंच परमेष्ठियों को कहने वाले पैंतीस, सोलह, छः, पाँच, चार, दो और एक अक्षररूप मन्त्रपदों का जाप और ध्यान करो। इनके अतिरिक्त गुरू के उपदेशानुसार अन्य मन्त्रपदों का भी जाप और ध्यान करो। पणतीस-1 णमो अरिहंताणं, 2 णमो सिद्धाणं, 3 णमो आयरियाणं, 4 णमो उवज्झायाणं, 5 णमो लोएसव्वसाहूणं, ये पाँच मन्त्रपद हैं, जिनके कुल 35 अक्षर हैं, ये सर्वपद कहलाते हैं। सोल-अरिहन्त सिद्ध आचार्य उवज्झाय और साहू ये 16 अक्षर पंचपरमेष्ठी के नामपद हैं। छ:-अरिहन्त, सिद्ध ये छः अक्षर अर्हत और सिद्ध दो परमेष्ठियों के नामपद हैं। पण-अ सि आ उ सा ये पाँच अक्षर पंच परमेष्ठी के आदिपद हैं। चदु-अरिहन्त, ये चार अक्षर अर्हत परमेष्ठी के नामपद हैं। दुग-सिद्ध ये दो अक्षर सिद्ध परमेष्ठी के नामपद हैं। एगं-'अ' यह एक अक्षर अर्हत परमेष्ठी का आदिपद है। ‘ओं यह एक अक्षर पाँचों परमेष्ठियों का आदिपदरूप है। ‘ओं' में अर्हत का प्रथम अक्षर 'अ' अशरीर (सिद्ध) का प्रथम अक्षर 'अ' आचार्य का प्रथम अक्षर 'आ', उवज्झाय का प्रथम अक्षर 'उ' तथा साहू (मुनि) का प्रथम अक्षर 'म' सम्मिलित है। पदस्थ ध्यान में इन पाँचों परमेष्ठियों के स्वरूप और उनके गुणों का चिन्तन किया जाता है।
सर्वप्रथम ‘णमो अरिहंताणं' पद में स्थित पिंडस्थ, पदस्थ और रूपस्थ इन तीनों ध्यानों के ध्येय अहंत परमेष्ठी के रूप का वर्णन करते हुए आचार्य श्री कहते हैं -
णट्ठचदुघाइकम्मो दंसणसुहणाणवीरियमइयो।
सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो।" जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय चार घातिया कर्मो को नष्ट कर दिया है, चारों घातिया कर्मो के नष्ट हो जाने से जिन्हें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य (चार अनन्तचतुष्टय) की प्राप्ति हो गयी