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________________ 53/3 अनेकान्त/46 की उपादेयता का उपदेश किया है। इससे पूर्व के श्लोक में पापों को छोड़कर व्रतों में निष्ठावान होने को कहा है। सम्यग्दर्शन सूक्ष्म एवं अन्तरंग विषय है। उसकी बाह्य पहिचान नियामक नहीं है, किन्तु चारित्र तो स्व में व पर में सर्वतः परिलक्षित होता है, प्रभावना का विशेष कारण है। तीर्थ की प्रवृत्ति तीर्थंकर प्रभु के चारित्र के प्रभाव से ही होती है। यह सबके कल्याण का कारण होने से सर्वोदय तीर्थ कहलाता है। संयम की महिमा त्रिभवन में व्याप्त हो जाती है। जैनधर्म और सर्वोदय तीर्थ का मूल संयम ही है। ज्ञान-श्रद्धान एवं क्रिया-चारित्र की सापेक्षता ही अभीष्ट है। रत्नत्रय के सभी अंगों का पर्याप्त महत्त्व है। आगम के कतिपय स्थल दृष्टव्य हैं :द्रव्प्यानुसारि चरणं चरणानुसारि - द्रव्यंमिथो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षः। तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतुमोक्षमार्ग द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य।। प्रवचन सार अध्याय2-12 तत्त्वप्रदीपिका टीका।। __ अर्थ - द्रव्यानुयोग के अनुसार चरणानुयोग है एवं चरणानुयोग का अनुसारी द्रव्यानुयोग है। यदि परस्पर में वे निरपेक्ष हैं तो दोनों मिथ्या हैं। अतः मुमुक्षु मोक्षमार्ग में चाहे द्रव्यानुयोग की प्रमुखता से अथवा चरणानुयोग की प्रमुखता से आरोहण करे। गौण-मुख्य कल्पना ठीक है, निषेध या किसी के अवमूल्यन की नहीं : द्रव्यस्यसिद्धौ चरणस्य सिद्धिः चरणस्य सिद्धौ द्रव्यस्य सिद्धिः । बुध्वेति कर्माविरतापरेऽपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरन्तु ।। 18 ।। अध्याय 3। -द्रव्य की सिद्धि में चरण की सिद्धि है और चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है। यह जानकर प्रवृत्ति-दशा में द्रव्य के अविरुद्ध आचरण करो। यहाँ पर आचरण का उपदेश है। श्रद्धान-ज्ञान की समीचीनता अभीष्ट है ही। एवं पणमियसिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे। पडिवज्जदु सामण्णं जइ इच्छदि दुक्ख परिमोक्खं ।। प्रवचनसार-201 ।। अर्थ – यदि दुःखों से मुक्त होना चाहते हो तो पूर्वोक्त प्रकार से सिद्धों
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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