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________________ 58/3 अनेकान्त/45 एवं निरर्थक ही होगा। स्पष्ट है कि सम्यक्त्व का अस्तित्व चारित्र के लिए है। वृक्ष की स्थिति में जो सम्बन्ध बीज और फल का है, वही सम्यक्त्व और चारित्र के मध्य में है। एक दूसरे के अस्तित्व में ये परस्पर पूरक हैं। निश्चय-नय की दृष्टि में तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों एक हैं। एक ज्ञायक भाव की तीन परिणतियाँ हैं। जो ज्ञान है, वही दर्शन है, वही चारित्र है। अंशी आत्मा के सभी अंशों का समान (अर्पित-अनर्पित दृष्टि से) महत्त्व है।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार चारित्र प्रधान ग्रन्थ है ही किन्तु इसमें सम्यग्दर्शन के महत्त्व को जो 40 श्लोकों में वर्णित किया गया है तथा उसे चारित्र से भी अधिमान दिया गया है, उसका मूल कारण यह है कि बिना सम्यग्दर्शन के चारित्र को सम्यक् संज्ञा नहीं दी जा सकती। वह अज्ञान-चारित्र ही है। मात्र चारित्र के भार को ही वहन करने से भी कल्याण नहीं है, अतः चारित्र को यथार्थ तत्त्वश्रद्धान पूर्वक ही धारण करना चाहिए। बिना श्रद्धान-ज्ञान के तो कोल्हू के बैल जैसा उसी एक स्थिति में ही भ्रमण रहता है। आगे सही दिशा में गमन संभव नहीं है। ___यहाँ एक और बात का उल्लेख करना चाहूँगा कि कतिपय जन सम्यग्दर्शन को ही स्वानुभूति एवं श्रद्धात्मानुभूति मान लेते हैं, सो यह भ्रम है क्योंकि सम्यग्दर्शन तो दर्शनमोहनीय की तीन एवं अनन्तानुबंधी की चार इन सात प्रकृतियों के अनुदय में प्रकट होने वाला श्रद्धागुण का परिणमन है, जबकि स्वानुभूति स्वानुभूत्यावरण नाम से कहे जाने वाले मतिज्ञानावरण के अवान्तर-भेद के क्षयोपशम से होने वाला क्षायोपशमिक ज्ञान है। दोनों ही पृथक्-पृथक् गुण हैं। यह ठीक है कि स्वात्मानुभूति सम्यत्व के होने पर ही होती है किन्तु करणानुयोग में व्याख्यायित गुणस्थान क्रम से ही होगी। गोम्मटसार में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती का लक्षण देखकर अपनी अव्रत दशा में ही संतुष्ट नहीं रहना चाहिए। स्वात्माभूति की सामर्थ्य वहाँ लब्धिरूप में, मात्र श्रद्धारूप में, अव्यक्त रूप में रहती है, उपयोग रूप में नहीं। पञ्चम गुणस्थान में वह प्रकट होती है, वह भी चारित्र के बल से । करना क्या है, यह आ. पूज्यपाद के शब्दों में देखिए अव्रतीव्रतमादाय व्रतीज्ञानपरायणः। परात्मज्ञानसम्पन्नः स्वयमेव परोभवेत् ।।86। समाधिशतक। -अव्रतीसम्यक् प्रकार व्रत ग्रहण कर ज्ञान-तत्पर होकर निज-पर के भेद ज्ञान से युक्त रूप में स्वयं उत्कृष्ट परमात्मा हो जाता है। यहाँ आचार्य ने चारित्र
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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