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53/3 अनेकान्त / 39 मान्य है। प्राथमिक जीवों के लिए परमौषधि है । मध्य के द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ लक्षणों की द्रव्यानुयोग - सम्मत सोपान - श्रृंखला से आरोहण करता हुआ जीव अंतिम पाँचवे लक्षण से लक्ष्य - सम्यग्दर्शन अर्थात् करणानुयोग-सम्मत नियामक स्थिति को प्राप्त कर मुक्ति का अवश्यम्भावी पात्र बन जाता है। सार्व दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि यथार्थ रूप में, एक लक्षण में अन्य लक्षण भी समाविष्ट हैं । देव- गुरु-शास्त्र तीनों या इनमें से एक का यथार्थ श्रद्धान हो जावे तो सभी सम्यक्त्व लक्षण प्रकट हो जायेंगे । आ. कुन्दकुन्द ने कहा भी है, जो जाणदि अरहंतं दव्वत्त- गुणत्त - पज्जयत्तेहिं ।
सो जादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। आ. कुन्दकुन्द ।। प्रवचनसार-80 अतः रत्नकरण्ड में वर्णित सम्यक् लक्षणावली से श्रद्धेय सम्यग्दर्शन के स्वरूप को समझ कर यह निर्धारण करना चाहिए कि सम्यग्दर्शन का आत्म-हित-हेतु बहुत महत्त्व है ।
सम्यग्दर्शन का महत्त्व आ. समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यक्त्व की महिमा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि सम्यक्त्व के समान अन्य श्रेयस्कर नहीं है । चाण्डाल शरीर की भी सम्यग्दर्शन सहित स्थिति में दिव्यता होती है। सम्यग्दृष्टि - जीव जन्मान्तर में नारकी, तिर्यच, स्त्री, नपुंसक, दुष्कुली, विकलाङ्ग और अल्पायु एवं दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता, भले ही वह अव्रती ही क्यों न हो । ज्ञान - आचरण की उत्पत्ति, वृद्धि और फलोदय बिना सम्यक्त्व के नहीं होते. जैसे कि बिना बीज के वृक्ष नहीं होता । सम्यग्दर्शन का मूल्य ज्ञान और चारित्र से अधिक है एवं मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन कर्णधार ( खेवटिया) कहा गया है। यहाॅ सर्वत्र सम्यग्दृष्टि को जिनभक्त के रूप में स्वीकार किया गया है। वह सम्यक्त्व के प्रभाव से अणिमा आदि आठ ऋद्धियों से युक्त, प्रकृष्ट रूप से शोभायमान देवगति में देवों और अप्सराओं के मध्य चिरकाल तक सुख - विलास करता है। सम्यग्दृष्टि जीव भवान्तर में ओज, तेज, विद्या, वैभव, बल, यश, विजय से युक्त तथा महानकुलीन, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष पुरुषार्थो को सिद्ध करने वाला सर्वश्रेष्ठ मानव होता है । यह सम्यक्त्व की ही महिमा है । दर्शन की शरण प्राप्त करके जीव शिव, अजर, अरुज, अक्षय, अव्याबाध, शोकरहित, भयरहित और पराकाष्ठा को प्राप्त निर्मल ज्ञान, सुख, बल-वैभव स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है । वह संसार के श्रेष्ठ प्रोन्नत पद चक्रवर्त्ती एवं तीर्थकर पद को
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