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सम्यक्त्व और चारित्र : किसका कितना महत्त्व - शिवचरण लाल जैन
प्रत्येक संसारी जीव चतुर्गति के दुःखों से संतप्त है । दुःख से सम्पूर्ण रीत्या छूटना मोक्ष है । यह जन्म, मरण, भ्रमण तथा कर्म से रहित अवस्था है, जिसके प्राप्त हो जाने से पुनः संसार दुःख की भयावह स्थिति सदैव के लिए समाप्त हो जाती है। मोक्ष का उपाय रत्नत्रय अर्थात् यथार्थ विश्वास रूप सम्यग्दर्शन (right belief) यथार्थ ज्ञान (right knowledge) सम्यग्ज्ञान तथा यथार्थ आचरण रूप सम्यक् चारित्र (right conduct) है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की धर्म-संज्ञा है। यही जीव को संसार के दुःखों से छुड़ाकर स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम सुख में स्थापित करता है। इसके विपरीत मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र्य दुःखमय संसार के कारण हैं । ( रत्नकरण्ड 2-3 )
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सम्यग्दर्शन आगम का आलोड़न करने से ज्ञात होता है कि विभिन्न अनुयोगों की दृष्टि से सम्यग्दर्शन के निम्न लक्षणों को स्वीकृति प्राप्त है :परमार्थ आप्त, आगम और तपस्वी अर्थात् सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की तीन मूढ़ताओं से रहितं तथा आठ अंग सहित श्रद्धा- सम्यग्दर्शन हैं। (रत्नकरण्ड-4) 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों अथवा पुण्य-पाप संयुक्त कर नव पदार्थो का श्रद्धान् सम्यग्दर्शन है । ( तत्त्वार्थ सूत्र ( 1-2 ) एवं समयसार - 13 ) आत्मा और पर का यथार्थ श्रद्धान् सम्यग्दर्शन है ।
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मात्र आत्मा का श्रद्धान् सम्यग्दर्शन है। इसे आत्म-साक्षात्कार भी उल्लिखित किया गया है।
दर्शन मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृतियों तथा चारित्र मोहनीय की अनन्तानुबन्धी क्रोध - मान-माया-लोभ प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय होने से प्रकट होने वाली आत्मविशुद्धि रूप श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं।
प्रथम लक्षण चरणानुयोग ( रत्नकर" ? आदि) की दृष्टि से