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________________ 53/3 अनेकान्त/25 के लिए स्थान-स्थान पर इनके प्रतिपक्षी भावों का चिन्तन किया है। यही उनके भक्तामर-स्तोत्र की मनोवैज्ञानिक भूमिका है। ___ आधुनिक मनोविज्ञान भी यह मानता है कि मानव-मन पापकर्म में सफल हो जाने पर भी दुःखी रहता है। पाप-कर्म का प्रतिपक्षी पुण्य-कर्म है। स्तुति एक पुण्यप्रद कार्य है, यदि वह उनकी की जाये जिन्होंने स्वयं पाप-प्रकृतियों को जीत लिया हो। आचार्य मानतुंग ने भक्तामर-स्तोत्र में जिनेन्द्रभगवान् की स्तुति पापकर्मों का नाश करने के लिए ही की है। वे स्वयं लिखते हैं कि हे नाथ! जिस प्रकार सूर्य की रश्मियों से निशा का समस्त अंधकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार आपकी स्तुति से प्राणियों के जन्म-जन्मान्तर के संचित पाप नष्ट हो जाते हैं। पापों का नाश तो उनका एक पड़ाव है, वास्तव में वे इस स्तोत्र का सुफल पाठक तक को मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति मानते हैं। अन्त्य श्लोक में इस तथ्य को उजागर किया है - स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्रं तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ।। " हे जिनेन्द्र भगवान्! विविध वर्णमय आपके गुणों से ग्रथित इस स्तुति रूपी माला को मैंने भक्तिपूर्वक बनाया है। जो पुरुष इसे गले में निरन्तर धारण करता है अर्थात् भक्तिभावपूर्वक इसका पाठ करता है, उस मानतुंग (उच्च ज्ञानी-सन्मानी) व्यक्ति को मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यहाँ मानतुंग पद जहाँ रचयिता का सूचक है, वहाँ ज्ञानी, चारित्र धारी पाठक जनों का भी द्योतक है। भय संसारी मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है। भयत्रस्त मानव भय के कारणों से संरक्षित होने का प्रयास निरन्तर करता है। अपनी रक्षा के लिए भय के प्रतिपक्षी साधन जुटाने पर भी वह पूर्ण संरक्षित नहीं हो पाता है, तथा अपने आराध्य की शरण में जाकर अपने को सुरक्षित मानने की भावना करता है। कठिन परिस्थितियों में वह अदेव-कुदेव या स्वर्गादि के देवों की प्रार्थना करने लगता है। इनसे बचने के लिए जैनधर्म में अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म की स्तुति प्रमुख है। यद्यपि वीतराग भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते हैं, तथापि भक्तिजन्य/स्तुतिजन्य पुण्य से शरणागत के दुःख का नाश अवश्यमेव होता है। पापकर्म भी पुण्यकर्म में संक्रमित हो जाता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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