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________________ 53/3 अनेकान्त/21 है। पण्डितप्रवर दौल गम जी ने कहा भी है-'जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुखतें भयवन्त।' सुखप्राप्ति के उपाय के विषय में विषमता दृष्टिगोचर होती है। जड़वादी जहाँ भौतिक सामग्री को सुख का कारण मानते हैं, वहाँ अध्यात्मवादी तथा मनोवैज्ञानिक इच्छाओं के शमन या अभाव को वास्तविक सुख स्वीकार करते हैं। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने सुख प्राप्ति का एक सूत्र बताया Achievement (7114) = Satisfaction (Figlee) Expectation 37T9TT) अर्थात् लाभ अधिक हो तथा आशा कम हो, तो सुख की प्राप्ति होती है और आशा अधिक हो तथा लाभ कम हो, तो दुःख मिलता है। इस सूत्र का सार यह है कि मनुष्य को आशायें कम करके सुख प्राप्त करना चाहिए। जब आशायें शून्य हो जाती हैं, तो परमानन्द की प्राप्ति होती है। जैनाचार्यों ने भी यही उद्घोष किया है 'आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम्। कस्य किं कियदायाति वृथा का विषयैषिता।।" प्रत्येक प्राणी के समक्ष आशा रूपी गर्त है, जिसमें संसार का वैभव परमाणु के समान है। फिर किसको कितना भाग प्राप्त हो सकता है। अतः विषयों की आशा व्यर्थ है। वादीभसिंहसूरि की तो स्पष्ट अवधारणा है कि आशारूपी समुद्र की पूर्ति आशाओं की शून्यता से ही हो सकती है। भारतीय मनीषियों ने आशा-शून्यता का प्रमुख साधन भक्ति और विरक्ति को माना है। इन दोनों से प्रांणी प्रतिकूल परिस्थिति में भी सुख प्राप्त कर सकता है। जैन स्तोत्रों के रचयिता प्रायः साधुवृन्द हैं, जो आशा-न्यूनता से आशा-शून्यता की ओर अग्रसर रहते हैं। जैनों के आराध्य पञ्चपरमेष्ठियों में भी आशा-न्यूनता एवं आशा-शून्यता की अवस्था को प्राप्त महापुरुष ही हैं। भक्तामर-स्तोत्र के रचयिता एक दिगम्बराचार्य हैं, जो विषयों की आशा नहीं रखकर आशाहीन निराकुल शिवपथ के पथिक हैं। अतः उनके भक्तामर स्तोत्र में मानव-मानस की मूलप्रवृत्तियों, मनःसंवेगों या भावनाओं का वर्णन बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से हुआ है। विख्यात मनोवैज्ञानिक मैक्डानल के अनुसार मानव में चौदह मूल प्रवृत्तियाँ (#49nt4--) और इतने ही मनःसंवेग (*35m#54) पाये जाते हैं -
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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