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53/3 अनेकान्त/18 चर्चा नं. 12 - आर्यिकाओ के लिये समवशरण में कोठे का विधान। समाधान - समवशरण में भी पुरुषों के लिए कोठा नं. 1 और कोठा नं. 11 दिया गया है अर्थात् मुनिराज को अलग और श्रावकों को अलग, पर स्त्रियों में आर्यिकाओं और श्राविकाओं को एक ही कोठा दिया गया है। जो इस बात का परिचायक है कि आर्यिकायें मुनि-तुल्य नहीं होती, वरना उनको भी अलग कोठा दिया जाता। चर्चा नं. 13 - क्या आर्यिकाओं द्वारा आचार्य या मुनिराज के चरणस्पर्श करना आगम-सम्मत है? समाधान - आर्यिका यदि आचार्य आदि के पास आलोचना आदि करने जाती हैं, तो कैसे करती हैं, इस संबंध में श्री मूलाचार-गाथा 195 इस प्रकार है :
पंच छ सत्त हत्थे, सूरी अज्झावगो य साधू य।
परिहरिऊणज्जाओ, गवासणेणेव वंदति ।। 195।। अर्थ - आर्यिकायें आचार्य को पाँच हाथ से, उपाध्याय को छह हाथ से और साधु को सात हाथ से दूर रहकर, गवासन से ही वंदना करती हैं। आचारवृत्ति - आर्यिकायें आचार्य के पास आलोचना करती हैं, अतः उनकी वंदना के लिये पाँच हाथ के अंतराल से गवासन से बैठकर नमस्कार करती हैं। ऐसे ही उपाध्याय के पास अध्ययन करना है, अतः उन्हें छह हाथ के अंतराल से नमस्कार करती हैं तथा साधु की स्तुति करनी होती है। अतः वे सात हाथ के अंतराल से उन्हें नमस्कार करती हैं, अन्य प्रकार से नहीं। यह क्रमभेद आलोचना, अध्ययन और स्तुति करने की अपेक्षा से हो जाता है।
मूलाचार-प्रदीप श्लोक नं. 2313-2314 में भी इसी प्रकार वर्णन है। आचार-सार श्लोक नं. 85 अधिकार-2 में भी लिखा है - ___नमन्ति सूर्योपाध्याय साधूनार्या यथाक्रमम् ।
पंचषट्सप्तहस्तान्तरालस्थाः पशुशय्याः।। 85।। अर्थ - आर्यिका गवासन से आचार्य, उपाध्याय और साधु को यथाक्रम से पाँच, छह और सात हाथ के अन्तराल (दूरी) में स्थित होकर नमस्कार करती हैं।
उपरोक्त सभी प्रमाणों से सिद्ध होता है कि आर्यिका को आचार्य या मुनि के चरणस्पर्श कदापि नहीं करने चाहियें। वर्तमान में जो आर्यिकायें अपने आचार्य या अन्य मुनि के चरणस्पर्श करती हैं, उनका ऐसा करना, आगम-सम्मत नहीं है।