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________________ 53/3 अनेकान्त/15 द्वारिका विभवालोक स्वशिरः कम्प विग्रहम्। तेऽवतीर्णं तमालोक्य, सह सोत्थाय पार्थिवाः (8) नमस्यासन दानादि सोपचारेण सक्रमम्। पूजयन्तिस्मसमान मात्रेण परितोषिणम् (9) अर्थ (पं. पन्नालाल जी कृत) - द्वारिका का वैभव देख आश्चर्य से जिनका सिर तथा शरीर कम्पित हो रहा था, ऐसे नारद जी को आकाश से नीचे उतरते देख सब राजा लोग सहसा उठकर खड़े हो गये। सम्मान-मात्र से संतुष्ट होने वाले नारद जी को सबने नमस्कार तथा आसन-दान आदि उपचारों से क्रमपूर्वक सम्मान किया। आ. प्रद्युम्न-चरित्र सर्ग-8, पृष्ठ 157 विजयार्द्ध के मेघकूट नरेश महाराज कालसंवर ने. नारद के पाद-प्रक्षालन कर अर्घ्य चढ़ाया। समीक्षा - हरिवंश-पुराण सर्ग-43, श्लोक-228 पर यह प्रसंग इस प्रकार है : प्रणामेनार्चितस्तेषां, दत्वाशिष मति द्वतम्।। वियदुत्पत्य संप्राप्तो, द्वारिकां नारदो मुनिः।। 228 ।। अर्थ - कालसंवर आदि ने नमस्कार कर नारद का सम्मान किया, तदनन्तर आशीर्वाद देकर वे आकाश में उड़कर द्वारिका आ पहुँचे। प्रथमानुयोग में महाराज भरत के द्वारा चक्ररत्न की पूजा का प्रसंग भी लिखा है, जिसका अर्थ होता है कि केवल मांगलिक-क्रिया सम्पन्न की। सभी चक्रवर्ती चक्ररत्न की पूजा करते हैं। वास्तव में चक्रवर्ती क्या करता है, इसके लिये तिलोयपण्णति भाग-2 की गाथा नं. 1315 को देखें : चक्कुप्पत्ति पहित्ता, पूजं कादूर्णे जिणवरिंदाणं। पच्छा विजय-पयाणं, ते पुव्व-दिसाए कुव्वदि।। अर्थ - चक्र की उत्पत्ति से अतिशय हर्ष को प्राप्त हुये वे चक्रवर्ती जिनेन्द्रों की पूजा करके, पश्चात् विजय के निमित्त पूर्व दिशा में प्रयाण करते हैं। (जिस बात का प्राचीन आगम स्पष्ट मिल रहा हो, उस विषय में अर्वाचीन कथन समीचीन नहीं माना जा सकता)। वास्तव में क्या चक्ररत्न जैसी जड़वस्तु की, जिनेन्द्र पूजा की तरह, पूजा आगम-मान्य हो सकती है? क्या भरत चक्रवर्ती जैसा क्षायिक सम्यग्दृष्टि इस
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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