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53/3 अनेकान्त/14 अर्थ - पूजा होने के बाद जब धर्म तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव तपकी वृद्धि के लिये वन को चले गये, तब देवों ने अभिषेक-पूर्वक दान तीर्थंकर-राजा श्रेयांस की पूजा की।
क्या देवताओं द्वारा की गई राजा श्रेयांस की यह पूजा जैनागम मान्य जिन पूजावत् है? क्या देवों ने भगवान की तरह राजा श्रेयांस का अभिषेक और पूजन किया था? इतना ही नहीं, आदि-पुराण के अनुसार तो सम्राट भरत ने राजा श्रेयांस को भगवान की तरह पूज्य भी कहा है :उ. अदृष्टं पूर्व लोकेऽस्मिन्, दानं कोऽर्हति वेदितुम् ।
भगवानिवपूज्योसि, कुरूराजत्वमद्य नः।। (सर्ग 20, श्लोक 127) अर्थ – इस संसार में पहले कभी नहीं देखी हुई इस दान की विधि को कौन जान सकता है? हे कुरूराज! आज तुम हमारे लिये भगवान के समान ही पूज्य हुये हो।
___ चक्रवर्ती के द्वारा राजा श्रेयांस के लिये दिया गया यह संबोधन उनके प्रति उत्कृष्ट सम्मान का सूचक है या भगवान की तरह पूज्यता का?
अतः स्पष्ट है कि उक्त सभी संदर्भो में प्रयुक्त 'पूजा' शब्द सत्कार और सम्मान का वाची है न कि आराधना का, अन्यथा अव्रतीकुलकर और मातंग चांडाल से लेकर राजा श्रेयांस तक की पूजा का प्रसंग आता है। दिगम्बर मुनि के अतिरिक्त अन्य जितने भी लिंगी (क्षुल्लक, ऐलक, आर्यिका) हैं, वे आदर और सत्कार के तो पात्र हैं, पर अष्ट-द्रव्य से पूजा के नहीं। पूजा मात्र निर्ग्रन्थों की ही होती है। इसलिये मुनियों के अतिरिक्त अन्य किसी के प्रति “ॐ ह्रीं श्री ............. अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा” बोलकर अर्घ्य चढ़ाना या चढ़वाना या पूजा कराना/करवाना आगम का अपलाप है।
प्रथमानुयोग के जो ग्रंथ भट्टारकों द्वारा लिखे गये हैं, उनमें स्वयं को पूजा के योग्य बनाने के लिए जबरन क्षुल्लकों को अर्घ्य देना उल्लिखित कर दिया है-उदाहरण नीचे देखें :अ. प्रद्युम्न-चरित्र सर्ग-3 श्लोक 112 पृष्ठ 13-14
श्रीकृष्ण ने क्षुल्लक पद के धारी नारद के पाद-प्रक्षालन कर अर्घ्य चढ़ाया। समीक्षा - इसी प्रसंग को हरिवंश-पुराणकार ने सर्ग-42, श्लोक 8-9 में इस प्रकार लिखा है :