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विशेष को उनके अविनयी व्यवहार के कारण मंदिर प्रवेश पर लगा प्रतिबन्ध इस अवसर पर उठा लिया गया। इस प्रशंसनीय कार्य से समूची जैन समाज की छवि निखरी और एक जघन्य पाप से मुक्ति मिली।
श्री महावीर जी तीर्थक्षेत्र के प्रबन्धकर्ता यदि यह बीड़ा उठा लेते कि जैन विश्वविद्यालय का उपक्रम वे करेंगे तो यह कार्य सहज ही हो सकता था और समाज की चिर-प्रतीक्षित आकांक्षा की सफल पूर्ति भी होती। परन्तु समाज तो मात्र पिच्छि-कमण्डलु की मर्यादा पालन के लिए है और शेष सब धार्मिक आयोजन धर्म-दोहन और शोषण के निमित्त बन रहे हैं। चिन्तनीय है कि हमने उक्त बड़े आयोजनों से क्या खोया क्या पाया?
श्रावक-शिरोमणि कौन? जैनियों में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ बतलाई गई हैं जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठता को लिए हुए हैं। अन्तिम ग्यारहवीं प्रतिमा श्रेष्ठतम है और इसके पालक ऐलक क्षुल्लक 'श्रावक शिरोमणि' होते हैं। गृहवासी अव्रती श्रावक शिरोमणि नहीं हो सकता। हाँ, जैनियों की समाज में किन्हीं अपेक्षाओं की दृष्टि से किसी को समाज शिरोमणि कहा जा सकता है। गृहवासी को श्रावक शिरोमणि जैसा चारित्रिक पद देना धर्म की हंसी ही है। खोज का विषय है कि ऐसी उपाधि देने की कुत्सित प्रवृत्ति कब, किसने और किस स्वार्थ वश चलायी? ऐसी उपाधियों के चलन को विराम देना चाहिये। धर्मनिष्ठ चारित्र कच्ची मिट्टी का कोई खिलौना नहीं जिसे तोड़ा-मरोड़ा जा सके।