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मूर्ति निर्माण और प्रतिष्ठायें
प्रतिष्ठा शब्द अपने आप में बड़ा रोचक है । उसमें भी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा । ऐसा संयोग भाग्य से ही मिलता है, जिसमें जिनेन्द्र भगवान के पंचकल्याणक तो होते ही हैं- कराने वाले पंचों का भी लगे हाथ कल्याण हो जाता है । प्रतिष्ठा मिलती है सो अलग। आखिर क्यों न हो, जब यह शब्द ही पंचकल्याणक है। बड़भागी हैं वे लोग जिनके पंचकल्याणक कराने के भाव होते हैं।
आजकल समाज में नित नए पंचकल्याणकों और जिनबिम्ब प्रतिष्ठा होने के समाचार मिलते रहते हैं। अतीतकाल में पंचकल्याणक कराये जाने के पीछे यह प्रबलभाव होता था कि इस आयोजन के माध्यम से देवदर्शन-पूजन का प्रचार होगा और सांसारिक विषय- कषायों से कुछ प्रवृत्ति हटेगी, परन्तु अब पंचकल्याणकों की जो रूपरेखा बनायी जाती है और उसके आयोजन को लेकर जो प्रचार-प्रसार होते हैं, वे पंचकल्याणकों के उद्देश्यों को कितना पूरा करते हैं - यह चिन्तनीय है । एक ओर जहाँ हमारे प्राचीन तीर्थ क्षेत्र की मूर्तियां और मंदिर समुचित रख-रखाव, देखभाल और संरक्षण की बाट जोह रहे हों, वहीं नित्य नयी मूर्ति की मात्र स्थापना करके स्वयं को गौरवशाली और पुण्यार्जक होने का दिखावा पाल रहे हों, यह खेद की बात है । इतना ही नहीं, आश्चर्य तो तब होता है जब इन पंचकल्याणकों को विधिवत् पूर्ण परिग्रह त्यागी मुनि आचार्य अपना पावन सान्निध्य प्रदान करते हैं और जिनके चित्र लेमिनेटेड बृहद्काय पोस्टरों में छापकर उनका प्रचार किया जाता है । वे पोस्टर एक-दो दिन बाद पैरों तले या कूड़ेदान में पड़कर धूल धूसरित होते हैं। उनकी इस अवमानना से हमारी श्रद्धा को पीड़ा पहुँचती है। ऐसे लगता है कि हमारे पूर्वज लोग आमंत्रण पत्रिका में मात्र आयोजन तिथि तथा कार्यक्रमों की सूचना सहित निमन्त्रण देकर कितना विवेकशील और अच्छा काम करते थे ।
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आधुनिकता की रौ में पड़कर हमने नए-नए साधनों को अपना तो लिया है, परन्तु उनकी आगम और परम्परा के सन्दर्भ में क्या उपयोगिता या सार्थकता है । इस पर शायद ही हमारा ध्यान जाता हो । अभी हमें शिखर जी क्षेत्र पर तीस चौबीसी पंचकल्याणकों की पत्रिका मिली है। उसे हमने ध्यान से पढ़ा। वस्तुतः तीर्थाधिराज शाश्वत तीर्थक्षेत्र शिखरजी के प्रति हमारे मन में अगाढ़ श्रद्धा है और उसकी भाव-वन्दना से मुक्ति का मार्ग खुलता है - ऐसा शास्त्रों में उल्लेख
है
। इस सिद्ध क्षेत्र में तीर्थकरों के चरण चिह्न हैं, जिनके दर्शनकर सभी कृतकृत्य