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________________ ( मिटै न मरिहैं धोय । जैनधर्म 'जिन' भगवान द्वारा आचरित और प्ररूपित अपरिग्रही धर्म है। इसके स्थायित्व और जीवन्त गुण भी इन्हीं गुणों पर आधारित हैं। जब तक इनके अनुरूप आचरण रहेगा, धर्म-मार्ग का प्ररूपण होगा और अपरिग्रहत्व की ओर जनता का झुकाव होगा, तब तक ही इस धर्म की प्रभावना होगी। पर, आज ऐसा अनुभव किया जा रहा है कि उक्त गुणों की सर्वथा अवहेलना कर विपरीत आचरण किया जा रहा है। लोग प्रचार का नाम तो ले रहे हैं पर उस प्रचार में आचार-पालन और अपरिग्रहत्व को ताक में रख स्व-कीर्ति और परिग्रह बढ़वारी की चाह काम कर रही है। इस आर्थिक युग में सभी व्यर्थ के आडम्बरों में धन व्यय कर, मान-यशकीर्ति की चाह मन में रख धर्म प्रचार का ढोंग जैसा कर रहे हैं। जबकि धर्म धन से नहीं, आचार-पालन से होता है। धन से तो मात्र संसार बढ़ाने वाली स्थावर-जंगम सम्पदा का रख-रखाव मात्र ही किया जा सकता है। आज तो लोगों में नाम की भूख इतनी प्रबल हो गई है कि वे धन-वर्षा कर अपने-अपनेचारण-भाट तैयार करने की होड़ में हैं-कहीं परस्कारों को वितरण कर-कराकर और कहीं अन्य प्रलोभन दिखाकर । यदि चारण-भाटों की उत्पादक ऐसी ही फैक्टरियाँ खुलती रहीं तो वह दिन दूर नहीं, जब लोग आगमों तक में परिवर्तन कर स्वयं तीर्थंकरों की पंक्ति में अपना नाम लिखायेंगे और यह धर्म ह्रास की ऐसी भयावह कहानी बनेगी जो 'तिनके मुख मसि लागहि, मिटै न मरिहैं धोय' की उक्ति को चरितार्थ करेगी। हमारी दृष्टि में ऐसे अनेक चारण-भाट आज भी मौजूद हैं जो आर्थिक-लाभ की लालसा में अपने आगम पोषक वचनों से मुकर चुके हैं। ऐसा आभास होता है कि जैसे कुछ सेठों, त्यागी नामधारियों और कुछ तथाकथित विद्वानों ने स्वप्रतिष्ठादि लाभ में जिन-मार्ग तक को दाँव पर लगाने की साजिश जैसी कर रखी हो । स्मरण रहे कि तीनों लोकों' की संपदा भी वीतराग धर्म की रक्षा नहीं कर सकती। इस धर्म को तो वीतराग भाव परम-दिगम्बरत्व, आगम पोषण और सदाचार आदि ही सुरक्षित रख सकेंगे।
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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