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अनेकान्त/३४
तैत्तिरीय आरण्यक का उल्लेख
तैत्तिरीय आरण्यक के १०वें प्रपिटक के ६३वें अनुवाद में लिखा है
"कथाकौपीनोत्तरासंगादीनां त्यागिनो यथाजातरूपधरा निर्ग्रन्था निष्परिग्रहाः" इति संवर्तश्रुतिः ।
अर्थात् कंथा (ठंड को दूर करने का कपड़ा), कौपीन (लँगोट) उत्तरासंग (चादर) आदि वस्त्रों के त्यागी, उत्पन्न हुए बच्चे के समान नग्न रूप धारण करने वाले, समस्त परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ साधु होते हैं। भर्तृहरि द्वारा दिगम्बर साधु की प्रशंसा
भर्तृहरि ने अपने वैराग्य शतक में दिगम्बर साधु की प्रशंसा की हैएकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः। कदाहं सम्भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः।। ६६ ।।
अर्थात् मैं एकाकी, निस्पृह, शान्त और कर्मो का नाश करने में समर्थ पाणिपात्र (हाथ ही जिसके पात्र हैं) दिगम्बर मुनि कब होऊँगा?
पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमण परिगतं भैक्षमक्षय्यमन्नं विस्तीर्णं वस्त्रमाशादशकममलिनं तल्पमस्वल्पमुर्वी। येषां निःसंगतांगीकरण परिणतिः स्वात्मसन्तोषिणस्ते। धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति ।। वैराग्यशतक-५०
जिनके हाथ रूपी पवित्र पात्र हैं, जो सदा भ्रमण करते हैं, जिन्हें भिक्षा में अक्षय अन्न मिलता है, जिनके दिशा रूपी लम्बे चौड़े वस्त्र हैं, परिग्रहत्याग रूप जिनकी परिणति रहती है, अपने आत्मा में ही जिन्हें संतोष रहता है और जो कर्मो का नाश करते रहते हैं, ऐसे दीनता रूपी दुःखसमूह से रहित महात्माओं को धन्य है।
शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरूणां त्वचः । सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिरूहां वृत्तिः फलैः कोमलैः। येषां निर्झरम्म्बुपानमुचितं रत्यैव विद्यांगना मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्वद्धो न सेवाञ्जलिः।। वैराग्यशतक-६३
पर्वतीय शिला जिनकी शय्या है, पर्वत की गुफा जिनका घर है, वृक्षों की छाल जिनका वस्त्र है, हिरण जिनके मित्र हैं, वृक्षों के कोमल फल जिनकी