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अनेकान्त/३१
अर्थात् कोई शबर क्षपणकों के समान मयूर पंख को धारण किए हुए थे। इसकी टीका में भानुचन्द्रगणि कहते हैं
क्षपणकैरिव दिगम्बरैरिव मयूराणां बर्हणां पिच्छानि छदानि धारयन्तीत्येवं शीला धारिणस्तैः।
यहाँ क्षपणक से तात्पर्य दिगम्बर मुनि से है। दिगम्बर साधु मयूरपिच्छी अपने साथ रखते हैं।
हर्षचरित में जैनों के लिए आर्हत शब्द का प्रयोग किया है
जैनैः आर्हतैः पाशुपतैः पाराशारिभिः। हर्षचरित पृ. १३६
बाण ने मयूरपिच्छ रखने वालो को क्षपणक और नग्नाटक कहा है-'शिक्षित क्षपणक वृत्तय इव मयूरपिच्छचयान् उच्चिन्वन्तः' हर्षचरित पृ. १०४
अभिमुखमाजगामशिखिपिच्छलाञ्छनो नग्नाटकः-हर्षचरित पृ. ३२७
यहाँ इस प्रकार के साधु को 'बहलमलपटलमलिनतनुः' बतलाया है; क्योंकि दिगम्बर जैन मुनि स्नान नहीं करते हैं। मुद्राराक्षस में क्षपणक का उल्लेख
विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस में क्षपणक का उल्लेख किया गया है।११ यहाँ कहा गया है कि हमारा सहाध्यायी इन्दुवर्मा नामक ब्राह्मण है। वह शुक्राचार्य प्रणीत दण्डनीति और ६४ अंगों वाले ज्योतिष शास्त्र में परमप्रवीणता को प्राप्त है। क्षपणक वेश को धारण करने वाले उसको मैंने नन्दवंश के वध की प्रतिज्ञा के पश्चात् ही कुसुमपुर लाकर नन्द के सभी मन्त्रियों के साथ उसकी मित्रता करा दी थी और विशेषतः उसमें राक्षस को विश्वास उत्पन्न हो गया है। उससे बहुत बड़े प्रयोजन की सिद्धि होगी।
इससे यह तात्पर्य ध्वनित होता है कि नग्न साधुओं का राजसभा आदि में निराबाध प्रवेश था और राजमंत्री तक उनका सम्मान करते थे।
मुद्राराक्षस के पञ्चम अंक का एक प्रकरण यहाँ दृष्टव्य है
क्षपणक-मैं अर्हन्तों को प्रणाम करता हूँ जो बुद्धि की गम्भीरता के कारण संसार में लोकोत्तर मार्गों से सिद्धि को प्राप्त करते हैं।
सिद्धार्थक-भदन्त, मैं नमस्कार करता हूँ। क्षपणक-श्रावक, धर्म की सिद्धि हो। श्रावक, जाने की तैयारी में