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अनेकान्त/२७
सार-यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि पूज्य महाविद्वान् श्रुतसागर सूरि तथा उनकी षट्प्राभृत टीका पूज्य तथा प्रामाणिक ही है। मात्र जो कहीं ऐसा अशुद्ध स्थल है उस स्थल के प्रति मन में शुद्ध सिद्धान्त ध्यान में रखना चाहिए। यही बात इस लेख के सभी बिन्दुओं के प्रति ध्यान में रखनी चाहिए। क्योंकि “एक स्थल में प्रमाणता का संदेह होने पर सभी स्थलों का अप्रमाण मानने में विरोध आता है।” (धवला जी १३/३८२)
१६. सुदृष्टि तरंगिणि (पं. टेकचन्दजी) पृ. ८४ (जैन पुस्तक भवन, कलकत्ता-७) तथा जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्ता के पृ. ६० तथा बनारस प्रकाशन के पृष्ठ १३७ : इन तीनों प्रकाशनों में लिखा है-जाके अन्तर्मुहूर्त आयु में बाकी रया ऐसा यतीश्वर के तीर्थकर का बंध भया होय ताके ज्ञान निर्वाण दोय ही कल्याणक एकै काल होय। समवसरणादि विभूति प्रकट नाहीं होय।
समीक्षा-यह असम्भव है। क्योंकि इस तीर्थकर प्रकृति की उद्वेलना तो हो नहीं सकती। क्योंकि यह उद्वेलना प्रकृति नहीं है। (गो. क. ४१५) तथा जो संयमी तीर्थकर प्रकृति बाँधता है उसके शुभ या शुद्ध दो ही उपयोग हो सकते हैं, यह तो सर्वविदित है। शुभोपयोग में पाप का पुण्यरूप संक्रमण तथा पुण्यबंध होता है तथा शुद्धोपयोग से भी पुण्य प्रकृति का अनुभाग तो घटता नहीं, स्थिति भले ही घट जाओ। (मो. मा. प्र. पृष्ठ ३४१ सस्ती ग्रन्थमाला) यही कारण है कि बद्ध साता का उत्कृष्ट अनुभाग अयोग केवली के अन्त समय तक भी पाया जाता है। (धवल १२/१८ आदि) इसी से यह सिद्ध हुआ कि बद्ध तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृति नियम से १४वें गुणस्थान तक जाती है तथा जिस केवली के वह सत्त्वस्थ होगी उसके उदित भी नियम से होती है। क्योंकि गो. क. गाथा ६२५ (पृष्ठ ६०६) में लिखा है कि तीर्थकर सत्त्वी सयोगी अयोगी के ७८, ८० व १० ये तीन सत्त्वस्थान ही हो सकते हैं तथा उसी के पृष्ठ ६६५ (मुख्तारी सम्पादन) में स्पष्ट बताया है कि ७८, ८०, १० नामकर्मीय सत्त्वस्थान वाले के नियम से २१, २७, २६, ३०, ३१ व ६ प्रकृतिक उदयस्थान ही उदय में आते हैं, अन्य नहीं।
(शेष आवरण ३ पर)