________________
अनेकान्त/२०
अन्तर्मुहूर्ततो मिथ्यात्व भावानुबन्धिनः।। ८ ।। यहाँ लिखा है कि अनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभाग जाने पर फिर अन्तरकरण नामक करण करता है जिसमें अन्तर्मुहूर्त द्वारा मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी का अपवर्तन होता है।
समीक्षा-अन्तरकरण में मात्र मिथ्यात्व का ही अपवर्तन अन्तरकरण होता है। अनन्तानुबन्धी का अन्तरकरण नहीं होता। यही बात धवल तथा जयधवल दोनों में तथा अन्यत्र लिखी है यथा-ज. ध. १२/३१०, धवल ६/२३१, जयधवल १२/२७५, (कम्मय. श्वे. पृ. २६०)
लब्धिसार गा. ८४;, गा. ८६ की टीका; लब्धिसार मुख्तारी टीका पृ. ८३ लब्धिसार (रायचंद्र शास्त्रमाला) पृ. ७१ पं. फूलचन्द्र जी सि. शा. आदि।
फिर अन्तरकरण किया के बाद अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति का जब अभाव होता है तभी प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। तत्काल नहीं। ७. उसी धर्मरत्नाकर में आगे श्लोक १४-१५ में लिखा है
लघ्वी स्थिति समस्तानामन्तमौहूर्तिकी विदुः।। १४ ।। ज्येष्ठामाद्यस्य तामेव, द्वे षट्षष्टी त्रयामपि। वेदकस्य त्रयस्त्रिंशत्सागराणां जगुः पराम् ।। १५ ।।
पूर्वकोटीद्वयेनामा क्षायिकस्येषदूनिकाम्।। अर्थ-तीनों सम्यक्त्वों का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है।। १४ । । उत्कृष्ट स्थिति प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व की तो पूर्वोक्त अन्तर्मुहूर्त ही है। वेदक सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति दो ६६ = १३२ सागर है। क्षायिक सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति दो पूर्वकोटी अधिक ३३ सागर से कुछ कम (२ अन्तर्मुहूर्त व ८ वर्ष से कम) है।
समीक्षा-ग्रन्थकार ने वेदकसम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति २ छासठ सागर कही; सो गलत है। वेदकसम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल सिद्धान्त शास्त्रों में ६६ सागर ही कहा है। (देखो-पं. रतनचन्द्र मुख्तार व्यक्तित्व-कृतित्व पृ. ३५३ जयधवल २/२२; २/११८-११६; धवल ७/पृ. १८१ आदि) दो छासठ सागर तक तो अनन्तानुबन्धी के उदय रहित या सत्त्व रहित रहने का का है; वेदक सम्यक्त्व का काल नहीं। इसी ग्रन्थ में नीचे टिप्पण भी गलत