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अनेकान्त/२६
के समान संतोष एवं शांति के पुजारी हैं पर इनके अहिंसा, असत्यवर्जन, अचौर्य, अब्रह्मवर्जन एवं अपरिग्रह के पांचों मूल सिद्धांत जीवन को नकारने की वृत्ति के द्योतक हैं। प्रो-हॉफ का कथन है कि इनमें से प्रथम तीन तो सामान्य श्रावक यथासंभव पालते हैं, पर अंतिम दो सिद्धांतों के पालन में, कुछ कठोरताओं के बावजूद भी काफी शिथिलता रहती है। पर साधु-साध्वीगण इन पर सूक्ष्मता से अमल करते हैं। तथापि, ये पांचों ही सिद्धान्त असीम हैं और सभी कोटि के प्राणियों पर लागू होते हैं। प्रो. श्वाइजर ने अनुमान लगाया है कि ये जैनों के मूल सिद्धांत नहीं हैं। ये तो जैनों की निवृत्तिमार्गी भूमिका से प्रसूत हैं जिनमें अक्रियता के गुण के साधन के रूप में ये बातें आई हैं। वस्तुतः जैन स्वयं को जगत से अनावृत करने के लिये करुणा आदि की बाते करते हैं। उन्हें दूसरों के हित से क्या मतलब है? वे दयामय अक्रियता को मानते हैं और दूसरों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण सहयोग को नकारते हैं। इसलिये जैन आचार शास्त्र व्यक्तिवाद और अस्मिता के जनक पाये जाते हैं। (आचार्य रजनीश के भी लगभग ऐसे ही विचार थे)। प्रो. वाशम के अनुसार भी जैन आचार मूलतः नकारात्मक एवं स्वार्थ प्रधान हैं। यह व्यक्तिमूलक हैं, समाजमूलक नहीं। इसीलिये जैनों की जीवन पद्वति कठोर नियमों से अनुशासित रहती है। यही इस तंत्र की दीर्घजाविता का रहस्य है। फिर भी, वे अन्य धर्मो के विपर्यास में मुनित्व के बिना सामान्य जन को सम्पूर्ण सुखमयता प्रदान नहीं करते।
__ जैनों के उपरोक्त पांच सिद्धांत श्रावक एवं मुनि दोनों के लिये समान हैं, पर मुनित्व में ही उनकी सूक्ष्म एवं पूर्ण परिपालना होती हैं (अनेक लेखकों ने अहिंसा सिद्धान्त के प्रतिफल के रूप में शाकाहार, पर्यावरण सुरक्षा एवं हिंसक उद्योगों की अस्वीकृति एवं अन्य तंत्रों पर उसके प्रभाव की भी चर्चा की है)। इसक बावजूद भी प्रो. नॉस की मान्यता है कि जैनों की नैतिक संहिता अशुभ क्रियाओं से विरक्ति दिलाती है एवं सुख-संवर्धन करती है। यही नहीं, कठोरी तपस्वी जीवन दूसरों को भी प्रभावित कर परोक्षतः जनकल्याणी सिद्ध होता है।
जैनों की नैतिक संहिता व्यक्तिवादी होने के बावजूद भी व्यक्ति को ही अपना 'भाग्यविधाता' स्वीकार करती हैं। इसलिये वे अवतारवादी नहीं हैं। उनके महापुरुष उनके भाग्यनिर्माण में सहायक नहीं हैं, वे केवल दिशा एवं प्रेरणा