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अनेकान्त/२२
ही होगी। (इसका यह अर्थ नहीं कि उनके सभी विवरण इसी कोटि के हैं। अनेक पुस्तकों में जैन धर्म की अनेक मान्यताओं का अच्छा विश्लेषणात्मक विवरण भी है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की 1996 एवं 1997 में प्रकाशित पुस्तकों में जैनधर्म का अच्छा एवं संतुलित विवरण है)। इसका एक कारण तो यह है कि हमारा साहित्य अधिकांश लेखक विद्वानों तथा प्रकाशकों तक नहीं पहुंचा है। और जो पहुंचा है, उसके परम्परागत निरूपण के आधार पर ही उनकी ऐसी धारणायें बनी हैं। इन विवरणों से विद्वानों के अध्ययन की एकांगिता भी प्रकट होती है। इन धारणाओं के निराकरण का तर्कसंगत प्रयत्न हुआ हो, ऐसा नहीं लगता। नहीं तो, 1999 की पुस्तकों में भी ऐसी धारणायें क्यों व्यक्त की जातीं? इनके अध्ययन से मुझे ऐसा भी लगा कि विदेशों में किये जाने वाले प्रवचन/प्रसारणों से पश्चिमी जगत प्रायः अछूता ही रहा है। 'सेवन सिस्टम्स
ऑफ इंडियन फिलोसोफी' (त्रिगुणायत), और 'दी वर्ल्ड रिलिजियन्स रीडर' (रटलज) जैसी अनेक पुस्तकों में जैनधर्म का विवरण ही नहीं हैं। हां, सिखधर्म का विवरण प्रायः सभी में है, उसका साहित्य भी सभी स्थानों पर दिखा। अनेक लेखक जैनधर्म और बुद्धधर्म को अभी भी हिन्दूधर्म का सुधारवादी रूप मानते हैं और दोनों धर्मो को एक ही अध्याय में विवरणित कर देते हैं। अनेक धर्म-अध्ययन विभागों में कार्यरत भारतीय विद्वान भी जैनधर्म को एक स्वतंत्र धर्म के रूप में नहीं मानते। विदेशों में वरसों रहने वाले जैन विद्वान् भी अपनी पुस्तकों में इन पश्चिमी धारणाओं के निराकरण का कोई प्रयत्न करते नहीं दिखते। “जैनीजम इन नार्थ अमेरिका (1996)” तथा 'कांक्वरर्स ऑफ दी वर्ल्ड' (1998) की भी यही स्थिति है। फलतः, जैनधर्म के सम्यक् रूप से विश्वस्तरीय समाहरण के लिये सदाशयी प्रत्यनों की अनिवार्य आवश्यकता है। इस हेतु विभिन्न पश्चिमी पाठ्य पुस्तकों तथा संदर्भ ग्रंथों में दिये गये असमीचीन या एकांगी मतों को सूचीबद्ध करने तथा उनको सम्यक् प्रकार से निराकृत कर समीचीन एवं बहु-आयामी मत प्रस्तुत करने वाली एक पुस्तक लिखी लिखाई जानी चाहिये और इसकी प्रतियां लेखकों/प्रकाशकों को भेजनी चाहिये जिससे वे आगामी संस्करणों में अपने मतों को परिष्कृत एवं संशोधित रूप में प्रस्तुत कर सकें। हम यहां केवल कुछ विचारणीय एवं उत्तरणीय धारणाओं का संकेत करेंगे।