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पश्चिम में सन्मति का समुचित समाहार
- डॉ. नंदलाल जैन
जापान की चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय गणित-इतिहास संगोष्ठी में “जैन शास्त्रों में शून्य की अवधारणा" विषय पर शोध-पत्र पाठ के निमंत्रण के अवसर का बहु-उद्देश्यीय लाभ देने के उद्देश्य से मैंने अमेरिका एवं कनाडा की यात्रायें भी की। पिछले अनेक वर्षों से अनेक जैन साधु और विद्वान् विदेश में प्रवचन हेतु जाते रहे हैं। उनके प्रवचनों में जैन धर्म के सिद्धान्तों को विश्वस्तरीय जनकल्याणी बताया जाता है। 'सन्मति की जयकार' की प्रभावी गाथा भी लिखी जाती है। उन गाथाओं एवं प्रवचनों का जैनेतर जगत एवं पश्चिमी विद्वत् जगत पर क्या प्रभाव पड़ा है, इसकी जानकारी में मेरी रुचि रही है। इस हेतु मैंने वहां के अनेक विश्वविद्यालयों के धर्म-अध्ययन विभाग के सदस्यों से भेंट की एवं उनके पुस्तकालय एवं सार्वजनिक पुस्तकालय भी देखे। यह भी ज्ञात हुआ कि इन देशों में धर्म-अध्ययन विभाग सैकड़ों की संख्या में हैं और उनमें विद्यार्थी भी काफी होते हैं। फिर भी, जैन धर्म विषयक जानकारी या साहित्य वहां नगण्य ही देखने को मिला। हां, वहां 'विश्वधर्मों के विवरण की अनेक पुस्तकें मिलीं जो 'धर्म-अध्ययन' विभागों में अधिकांश में पढ़ाई जाती हैं। इनके आधार पर ही नयी पीढी को जैनधर्म की जानकारी मिलती है। इसीलिये मैंने वहां उपलब्ध 1889 से 1999 के बीच विभिन्न धर्म-निष्णात विद्वानों द्वारा लिखित विश्वधर्म की पुस्तकों में जैनधर्म संबंधी विवरण के लिये लगभग 25 पुस्तकें पढ़ीं। इनमें जैनधर्म का विवरण 4 से लेकर 24 पृष्ठों में है। इन्हें पढ़कर मेरा मन उद्विगन हुआ। ऐसा प्रतीत हुआ कि इस धर्म के विषय में पश्चिमी विद्वानों (कुछ को छोड़कर) में, अतएव उनके विद्यार्थियों में भी, बड़ी भ्रामक धारणायें हैं। यदि इस तरह के विवरण पढ़े जायेंगे, तो इस धर्म के प्रति पश्चिम की रुचि नकारात्मक