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अनेकान्त/११
जुगलकिशोर जी मुख्तार साहब का। अदम्य और अपराजेय व्यक्तित्व
मुख्तार साहब बचपन से ही साहसी और अत्यंत लगनशील, कर्मठ व्यक्तित्व के धनी थे। कहा जाता है कि शायर, सिंह और सपूत लीक छोड़कर, अपना मार्ग आप बनाते हुए चलते हैं, इस आधार पर कहा जा सकता है कि जुगलकिशोर मुख्तार एक ऐसे ही सपूत का नाम था। सैकड़ों सपूत मिलकर भी जिसकी बराबरी न कर पायें, ऐसा सूपत। जैन इतिहास, साहित्य और संस्कृति के बारे में उनके मन में अनन्त जिज्ञासाएं थीं और उन्हीं के समाधान में वे जीवन भर पूरी तन्मयता, पूरी ईमानदारी तथा पूरी निस्पृहता के साथ लगे रहे। विघ्न-बाधाएं कभी उन्हें अपने लक्ष्य से विमुख नहीं कर पाई। असहायपने का अहसास, या यात्रा-पथ का अकेलापन उन्हें कभी अनुत्साहित नहीं कर पाया। उनके संकल्प सदा अदम्य रहे और उनका सादा-सा व्यक्तित्व हर हाल मे अपराजेय बना रहा।
यदि हमें बहुत संक्षेप में मुख्तार साहब के जीवन-दर्शन को रेखांकित करना हो तो हम यह कह सकते हैं कि उनकी साधना एक ओर निराकार की आराधरना में निहित थी और दूसरी ओर वे साकार के उपासक भी थे। निराकर आराध्य के रूप में उन्होंने “अनेकान्त" को अपना आदर्श बनाया था और साकार उपासना के क्षेत्र में स्वामी समंतभद्र उनके उपास्य देवता थे। मुझे तो लगता है कि भगवान महावीर स्वामी के बाद, मुख्तार साहब के लिये, स्वामी समंतभद्र का ही स्थान था। समंतभद्र की चर्चा और गुणानुवाद करते वे कभी थकते नहीं थे और उन पूज्य आचार्य के स्मरण मात्र से उनके नेत्रों से प्रेम के अश्रु प्रवाहित होने लगते थे। अपने आदर्श-पुरुष के प्रति मुख्तार साहब की इस प्रगल्भता ओर इस कोमल भावुकता का साक्षात्कार मुझे अनेक बार हुआ है। उस समय उनकी भाव-विभोरता देखते ही बनती थी। वह किसी भी प्रकार कहने या लिखने बताने की बात नहीं है।
मुख्तार साहब का कृतित्व दर्जनों ग्रन्थों और सैकड़ों शोधपरक लेखों के रूप में हमें उपलब्ध है, पर मैं ऐसा समझता हूं कि गमक-गुरु आचार्यश्री समंतभद्रस्वामी के दिव्यावदान को जिन पृष्ठों पर उन्होंने बिखेरा है, वे पृष्ठ