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अनेकान्त/१८
बारहवर्षीय दुर्भिक्ष तो समाप्त हो गया, किन्तु जिन साधुओं ने वस्त्र स्वीकार कर लिया था, उनमें से कुछ साधुओं ने पुनः वस्त्र का परित्याग करना स्वीकार नहीं किया और स्थूलभद्र के नेतृत्त्व में अपने स्वतन्त्र संगठन की घोषणा कर दी। धीरे-धीरे यह संगठन श्वेताम्बर परम्परा के रूप में उदय में आया, जिसके कारण अविच्छिन्न जैनसंघ छिन्न-भिन्न हो गया और आज स्थिति यह हो गयी है कि हर साधु अपना स्वतन्त्र गण, गच्छ, टोला आदि लिए घूम रहा है, फलस्वरूप बेचारे श्रावक भी विभाजित हो गए हैं।
दिगम्बर समाज में मुसलमानी शासनकाल में पुनः एक मोड़ आया, जब राजनैतिक कारणों से नग्न मुनि का विचरण करना बन्द-सा हो गया। ऐसी स्थिति में धर्म रक्षार्थ श्रावकों के बीच नग्न रहकर कुछ साधु बाहर निकलते समय वस्त्र का उपयोग करने लगे। ऐसे साधु भट्टारक कहलाए । भट्टारक शब्द बड़ा पवित्र है। उत्तरपुराण में भट्टारक शब्द का प्रयोग भगवान पार्श्वनाथ के लिए हुआ है। कई जगह अर्हत भगवान् को परम भट्टारक कहा गया है। हमारे पुष्पदन्त और भूतबलि तथा गुणधर जैसे महान् आचार्य 'भडारया' भट्टारक कहलाते थे, किन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि शब्द अपनी अर्थवत्ता को खोकर हीन अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है। मुसलमानी शासन में इस पवित्र भट्टारक शब्द की भी दुर्गति हुई। प्रारम्भ में कुछ साधु नग्न एक स्थान पर रहकर धर्मायतनों की देख-रेख करने लगे। मठों की विपुलसम्पत्ति का अधिकारी हो जाने के कारण धीरे-धीरे ये पालकी में विचरण करने लगे और राजा-महाराजाओं के समान इनके ऊपर छत्र ताने-जाने लगे और चँवर डुलाए जाने लगे। बाद में इन्होंने धीरे-धीरे वस्त्र भी स्वीकार कर लिया। सुना है कि आज भी भट्टारकों की दीक्षा नग्न ही होती है, किन्तु नग्न वेषधारी भट्टारकों से कुछ श्रावक निवेदन करते हैं कि कालदोष के कारण अब साधु का नग्न रहना सम्भव नहीं रह गया है, अतः आप लंगोटी आदि धारण कर लीजिए। श्रावकों की प्रार्थना पर नग्न भट्टारक लंगोटी आदि धारण कर लेते हैं। प्रारम्भिक भट्टारक नग्न ही रहते थे, बाद में वस्त्र धारण की प्रथा शुरू हुई।
कालान्तर में ये भट्टारक विपुल सम्पत्तियों के मालिक बन गए। इन्होंने धार्मिक सम्पत्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया। ये धर्म के ठेकेदार बन