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अनेकान्त/१२
इस सबका समर्थन किया गया है। लेकिन मैं इसका समर्थन नहीं करने वाला हूँ।
और कोई समर्थन करना चाहे तो उनकी बात नहीं कह सकता। इसलिये कि यह एक प्रकार से जैन-साहित्य, दर्शन, आचार-संहिता के लिये महादोष है। शैथिल्य अलग वस्तु और मार्ग-दूषण अलग वस्तु हैं। शैथिल्य किसी से हो सकता है, जो उस व्यक्ति तक सीमित रहता है। शैथिल्य विधान नहीं हो सकता। आज भट्टारक पद को वैधानिक रूप दिया जा रहा है और उसमें बहुत बड़े-बड़े सच्चे देव, शास्त्र एवं गुरु को मानने वाले ही उनकी रक्षा करने में जो लगे हैं, उनको सोचना चाहिये। शास्त्र का मार्ग तो उन्होंने बिल्कुल ही परिवर्तित कर दिया है। विद्वानों के बारे में मैं ज्यादा तो नहीं कह सकता। श्रीमानों के लिये भी मैं इतना कह सकता हूँ कि उनको सोचना चाहिये। मुझे आगे करके वह क्या करना चाहते हैं ? मार्ग तो मार्ग माना जाता है। यदि शैथिल्य का कोप हो जाता है तो मार्ग दूषित हो जायेगा। उसे वैधानिक रूप नहीं दिया जा सकता। फिर उनका लिंग क्या हुआ ? उनकी व्यवस्था क्या होगी ? इन बातों को आप लोग जहाँ-कहीं भी जावेंगी, अवश्य रखेंगे। हम अपनी तरफ से इस बारे में अवश्य सोचेंगे और उसे मूर्त रूप देने का विचार करेंगे।
अभी-अभी पढ़ने में आया है कि, दक्षिण भारत में भट्टारक परंपरा की आवश्यकता है, तो पिच्छी रखकर के (अलग करके) आप भट्टारक परंपरा चला सकते हैं, इसमें कोई बाधा नहीं है। इसे आदर्श के रूप में आप चला सकते हैं। लेकिन भट्टारकों को पिच्छी की आवश्यकता है, तो उनके लिए (भट्टारकों) ग्यारह प्रतिमा का पालन करना होगा। यह ध्यान रखना जितने भी व्यक्तियों को आपने दीक्षा दी है, दिलवायी है उनको भी ठीक, वैधानिक रूप में नहीं माना जा सकता। एक भट्टारक जो किसी पद पर नहीं है उसे पिच्छी दिलाने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। पिच्छी श्रमण के पास यानी तीन लिंग के अलावा किसी के पास नहीं रह सकती। यह आचार्य कुंदकुंद भगवान की घोषणा 2000 वर्ष पूर्व की है और आज उसकी आनाकानी की जा रही हैं अन्य कोई व्यक्ति पूछता है, इसका रूप क्या है ? आप लोगों को बताना होगा। यह भी आपको ज्ञात नही है और आप लम्बी-चौड़ी बातें कर रहे हैं। समयसार की तो आप वाचना के लिये तैयार हैं किंतु यह ज्ञात नहीं है कि क्षुल्लक कौन होता है ? और भट्टारक का रूप