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अनेकान्त/१७
आवश्यकता है।
आज समाज मे एक नही अनेक वीर-वीरागनाएँ है। मिलन के रूप मे अनेकानेक आयोजन हो रहे है, परन्तु परस्पर की दूरियाँ यथावत् है। इन आयोजनो मे न कही वात्सल्य की भावना प्रस्फुटित होती दिखती है और न ही मैत्रीभाव का कोई चिन्ह दृष्टिगोचर होता है। वैभव और प्रदर्शन की वस्तु बन कर रह जाते है ये बडे बडे आयोजन। आश्चर्य तब होता है जब इन आयोजनो मे सहभागी-गणमान्य व्यक्ति इनकी निरर्थकता पर सवाल उठाते हुए भी सार्थकता के विषय मे कभी चिन्तन-मनन नहीं करते। कुछ घटो का यह आयोजन परस्पर प्रशसा और वीर-वीरांगनाओ के प्रदर्शन के साथ-साथ समाप्त हो जाते है। इसे सत्संग भी नहीं कहा जा सकता क्योकि सत्सग मे तो कथा-श्रवण आदि होता है। परस्पर सुख-दुःख की चर्चा भी हो जाती है परन्तु इनमे तो इसका सर्वथा अभाव पाया जाता है। ये आयोजन सामाजिकता और सौहार्द बढाने में सहायक हुए हों ऐसा कोई उदाहरण सामने नही आया। ___भगवान महावीर के अनुयायी होने के कारण तो हम सभी 'वीर' हैं पर क्या हम परम्परागत रूप मे या सास्कृतिक सामाजिक किसी भी दृष्टि से वास्तविक 'वीर' है ? यह चिन्तनीय है। 'युगवीर' जैसा सशक्त व्यक्तित्व सदियो मे होता है लेकिन उसकी अनुगूंज कई शताब्दियो तक लोगो को रोमांचित करती है।
सक्षेपत. मुख्तार सा के अनेक गुण, उनकी सघर्षशीलता, नारिकेल समाहारा व्यक्तित्व, निर्भीक-आगमोक्त निरुक्तियॉ, स्थापनाये, अवधारणाएँ आज के स्वार्थान्ध-युग मे प्रकाश-स्तम्भ के समान है। यदि उनके व्यक्तित्व के अनुजीवी गुणो का अनुकरण करें तो न केवल श्रमण सस्कृति के उन्नयन मे अपना सक्षम योगदान कर सकेगे वरन् भावी पीढ़ी भी हमे कृतज्ञता के साथ स्मरण करेगी।
कर्मठ सतत साहित्य साधना के शक्तिपुज युगवीर मुख्तार सा और उनकी कालजयी दृष्टि को श्रद्धा सहित नमन ।