________________
अनेकान्त/६
उस समय भी हमने लिखा था “उक्त श्लोक तीर्थकर मुनिसुव्रत के शासनकाल में उत्पन्न केकयी के भाषा ज्ञान के सबध मे है कि उक्त तीनों (सस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी) भाषाओं को जानती थी। पर शौरसेनी प्राकृत पोषको को शौरसेनी शब्द से ऐसा लगा कि यह शौरसेनी प्राकृत है। जबकि वह भाषा प्राकृत से भिन्न शौरसेनी थी। यदि प्राकृत होती तो प्राकृत शब्द में गर्मित हो जाती उसका पृथक् कथन न होता। बस, इन्होने उस शौरसेनी को अपनी अभीष्ट प्राकृत के भेद के रूप में प्रचारित कर दिया। जबकि तीर्थकरो की देशना मे एकरूपता का कथन शास्त्रो में मिलता है। क्या मुनिसुव्रतनाथ और बाद के किसी तीर्थकर ने शौरसेनी मे देशना दी थी और वहाँ देवकृत १४ अतिशयों मे अर्धमागधी के स्थान पर शौरसेनी का कहीं उल्लेख है ? क्या देव अतिशय बदलते रहते है ? अस्तु।।
कुछ लोग शौरसेनी के व्यामोह में मूल को ही नष्ट करने की प्रक्रिया मे जा रहे है। ‘णमोकार मत्र' मूल और अनादिनिधन मत्र है जिस पर हमारी अटूट श्रद्धा है और इसी पर जिनशासन टिका है। यदि शौरसेनी-करण का राग अलापते रहे तो वह मूलमत्र भी खटाई मे पड जायेगा क्योकि दिगम्बर आगमो की मूल परम्परित प्राचीन भाषा को शौरसेनी घोषित करने वाले व्याकरण पक्ष व्यामोही व्यक्ति, अपनी मान्यता की कसौटी मगलाचरण मूलमत्र मे ढूँढकर बताये कि उक्त मगलाचरण में कितने पद शौरसेनी व्याकरणसम्मत हैं और णमोकार मन्त्र क्यों दिगम्बरों द्वारा मान्य है ? पाठक विचार करे
‘णमो अर (अरि) हताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।। उक्त मूलमत्र जैनियों के सभी सम्प्रदायों में मान्य है। प्रायः अन्तर केवल 'न' और 'ण' का है। जहाँ दिगम्बरो में 'णमो' प्रचलित है, वही श्वेताम्बरों मे प्रायः 'नमो' बोला जाता है। व्याकरण मान्यता वालो की दृष्टि से देखा जाय तो उनकी दृष्टि मे जितने भी प्राकृत व्याकरण हैं, उनमें