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अनकान्त/३२
षट्कर्मो के निमित्त दिशा, काल, आसन, पल्लव और अगुलि का विधान कहा गया है। अनन्तर यत्र लेखन विधि, आह्वान, स्थितीकरण, सन्निधीकरण, पूजाविधान और विसर्जन रूप पचोपचारी पूजा विधि वर्णित है। मूलमत्र के तीन लाख जाप पद्मपुष्पो से करने पर पद्मावती देवी सिद्ध हो जाती है। पश्चात् षडक्षरी, त्रयक्षरी, एकाक्षरी मत्र, होमविधान तथा पार्श्वयक्ष को सिद्ध करने की विधि बतायी गई है। चौथे अधिकार मे बारह यंत्रो एव उनके मत्रो का कथन है। पांचवे अधिकार मे स्तभन मत्रो एव यत्रो का विधान है। छठवे अधिकार में अंगनार्षण मत्र-यत्र बताये गये है। सातवे अधिकार मे वशीकरण के अनेक मत्रो और यत्रो का वर्णन है। आठवे अधिकार मे दर्पण-निमित्त मत्र एव साधन विधि, दीप निमित्त और कर्णपिशाची की सिद्धि का विधान है। नवमे वशीकरण तत्र नामक अधिकार में अनेक
औषधीय तत्रो का उल्लेख है, जो स्त्री-पुरुषो को आकर्षित करने तथा वश मे करने के लिए उपयोगी बताये गये है। इनमे जनमोहन तिलक, चूर्ण भक्षण, अजन विधान, द्यूतजय योग, जलूका प्रयोग आदि का कथन प्रमुख है। दशवे अधिकार मे अष्टाग “गारुड़विद्या का प्रतिपादन है। इसमे सर्प को वश मे करने, पकड़ने, निर्विष करने आदि के मत्र है। यहाँ नागप्रेषण, स्तम्भन, कुण्डलीकरण, कुभप्रवेशन, रेखा, विषभक्षण आदि का विस्तार से निरूपण किया गया है। ग्रन्थ के अन्त मे मत्रदान विधि कही गई है, इसमे सम्यक्त्व रहित पुरुष को मत्र देने का निषेध है। ज्वालिनी कल्प
इसके कर्ता भी मल्लिषेण सूरि है। एच०आर० कापडिया ने इसका रचना काल वि०स० १११० के लगभग माना है। १६ प० जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेकान्त वर्ष १ पृष्ठ ४२८ पर, जैनेन्द्रसिद्धान्त कोष भाग-३ पृष्ठ ३४३ पर तथा जैन सस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग-३ पृष्ठ २३० पर ज्वालिनी कल्प का उल्लेख है। इसमे ज्वालामालिनीदेवी की स्तुति है। यह इन्द्रनन्दि के ज्वालामालिनी कन्प से भिन्न है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति सेठ माणिकचन्द्र जी बम्बई के सग्रह मे होने की सूचना है।"