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________________ अनेकान्त/२४ सुना होगा आपने नाम उपनिषद् का । हॉ, तो उसमे से एक उपनिषद् सवाल करता है, बड़ा सवाल है, यह सबके मन मे उठता है जो सवाल आप कर रहे हैं उन सबकी जड़ में है यह सवाल किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवनम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा: अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्। सवाल है कि हम चलते रहे है उस व्यवस्था मे जो उन लोगो ने बनाई है जो कहते हैं हम तो ब्रह्म को याने इस दुनिया के राज को जानते है किन्तु कौन है यह ब्रह्म, कहाँ से आए हम, कौन जिन्दा रखे हुए है हमे, क्या है यह ठहराव, सुख दुख किसके द्वारा दिए जा रहे है। इन सब पर विचार किया उन २४ महापुरुषो ने और कहा हम जान गए हैं सब कुछ, हम सर्वज्ञ है तुमको भी सब कुछ समझा देगे, पार लगा देंगे तुमको, हम है तीर्थकर । उनने कहा, देखो, एक शरीर धारी है कोई पौधा हो या मनुष्य पर एक दिन वह मर जाता है। क्या है यह मरना-देखा उस शरीरधारी की सब हरकत बंद हो गई है सास बद हो गई है हमेशा के लिए, तो सवाल उठा कि क्या था जो चल रहा था, चला रहा था शरीर को-क्या था वह जो ऐसा गया कि बस सब चलना ही बद कर गया-थी कोई शक्ति कोई चीज जो जिन्दा बनाए थी शरीर को, सासो को चलाती थी। दिखता वह है नही दुनिया के किसी भी बृहत् दर्शी यत्र से, छूने को कुछ नही, कोई खुशबू बदबू भी नही, सुनता सुनाता भी नही, खाता पीता भी नही-मगर है कोई द्रव्य, जो गतिशील है गति देता है, हरकत पैदा करता है-है ऐसा कुछ-क्या नाम दे उसको कि नाम लेते ही समझ मे आ जाए-हाँ, आत्मा नाम ठीक रहेगा क्योकि अत् या अन् से बना है यह शब्द-इसका अर्थ है चलते रहना, बस चलते रहना, सांस लेते रहना । कैसे समझे इस आत्मा को जिसका कोई रूप है तो केवल स्वरूप । इसको 'स्व' कह सकते है। स्व बस स्व है। ऐसे स्व को भला कोई मार सकता है, जला सकता है, नहीं, कदापि नहीं। अब यह स्व कहाँ जाता है, कहाँ से आता है? यह भी देखा कि कोई एक शरीर चेतना हीन होता है, कोई एक चेतना प्राप्त करता है, हो न हो यह एक
SR No.538051
Book TitleAnekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1998
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size4 MB
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