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अनेकान्त/१७
सुरक्षित रखने के लिए ही नागपूजा का प्रचलन हुआ है। पडित बलभद्र जैन ने नागजाति और नागपूजा को जैन श्रमण परम्परा के सातवे तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के साथ संबंध जोड़ते हुए यह सकेत दिया है कि सुपार्श्वनाथ की मूर्तियो के ऊपर नागफण का प्रचलन सम्भवत. इसीलिए हुआ कि नागजाति की पहचान हो सके। सर्पफणावली युक्त प्रतिमाए मथुरा आदि मे प्राप्त हुई है। नागपूजा का प्रचलन पार्श्वनाथ की धरणेन्द्र-पदमावती द्वारा रक्षा के बाद से हुआ है। इस प्रकार यक्षपूजा का संबध भी धरणेन्द्र-पदमावती से है।
पुरातत्व एव जैन श्रमण परम्परा
श्रमण परम्परा के महत्वपूर्ण अवशेषो का काशी की भूमि से प्राप्त होना भी श्रमण परम्परा के स्रोत का प्रबल साक्ष्य है। भारत कला भवन, काशी हिन्द विश्वविद्यालय मे पुरातत्व सबंधी अनेक बहुमूल्य सामग्री संग्रहीत है। इसमे पाषाण और धातु की अनेक जैन प्रतिमाएं है, जिन्हे पुरातत्वज्ञो ने कुषाण काल से मध्यकाल तक का माना है।
उक्त सामग्रियो मे कुषाणयुगीन सप्तफणावली युक्त पार्श्वनाथ का शीर्ष भाग है, जो मथुरा से उत्खनन मे प्राप्त हुआ था। राजघाट के उत्खनन से प्राप्त सप्तफणावली युक्त एक तीर्थंकर प्रतिमा है। इस फणावली के दो फण खण्डित हो गये है। सिर के इधर-उधर दो गज बने हुए है। उनके ऊपर बैठे देवेन्द्र हाथो मे कलश धारण किये हुए है। फणावली के ऊपर भेरी ताड़न करता हुआ एक व्यक्ति अंकित है। यह मूर्ति ११वी शताब्दी की अनुमानित की गई है। पचफणावली से यह सुपार्श्वनाथ की मूर्ति प्रतीत होती है।
एक खगासन प्रतिमा, जिसके दोनो ओर यक्ष-यक्षी खड़े हैं। वक्ष पर श्रीवत्स अकित है। इस प्रतिमा पर कोई चिन्ह नहीं है और न ही कोई अलंकरण है। इन कारणों से इसे प्रथम शती में निर्मित माना जाता है।
एक शिलाफलक पर चौबीसी अंकित है। मध्य में पद्मासन ऋषभदेव का अंकन है। कैशो की लटें कंधों पर लहरा रही है। पादपीठ पर वृषभ