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________________ अनेकान्त/१४ रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र) के प्रतीकात्मक त्रिशूलाकित त्रिशूल से सम्पन्न माना जाता है। सिन्धुघाटी से प्राप्त मुद्राओ पर भी ऐसे योगियो की मूतिया अकित है जो दिगम्बर है। जिनके सिर पर त्रिशूल है और कायोत्सर्ग (खड्गासन) मुद्रा मे ध्यानावस्थित है। कुछ मूर्तिया ऋषभ चिन्ह से भी अकित है। मूर्तियो के ये रूप महान योगी ऋषभदेव से सबधित माने जाते है। जैन परम्परा तथा उपनिषद मे भी भगवान ऋषभदेव को आदि ब्रह्मा कहा गया है। भगवान ऋषभदेव तथा शिव दोनो का जटाजूट युक्त रूप चित्रण भी उनके ऐक्य का समर्थक है। इस प्रकार श्रमण परम्परा के आदि प्रवर्तक आदिनाथ के समय से ही काशी मे जैन परम्परा विद्यमान रही है। सातवे तीर्थकर सुपार्श्वनाथ आठवे चन्द्रप्रभ', गयारहवे तीर्थकर श्रेयासनाथ तथा तेइसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ११ का गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान कल्याणको की पृष्ठभूमि के रूप मे काशी आज भी समस्त जैन धर्मानुयायिओ के लिए श्रद्धा का केन्द्र है। इतिहासज्ञो ने तीर्थकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता प्रमाणित की है और यह तत्व स्वीकार किया है कि जैन धर्म की अवस्थिति बौद्ध धर्म से भी पूर्व की है। काशी के सन्दर्भ मे तीर्थकर सुपार्श्वनाथ एव चन्द्रप्रभ के सन्दर्भ मे परम्परागत उल्लेख ही मिलते है। इस दृष्टि से जैन श्रमण परम्परा के अतिप्राचीन उत्स की उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योकि “वातरशना १२ “व्रात्य १३ आदि के रूप मे वेदो मे उल्लेख आया है। अत श्रमण-परम्परा का आदि एव मूल स्रोत यदि ऋषभदेव है तो उनके परवर्ती तीर्थकरो की स्थिति भी स्वीकार्य हो जाती है क्योकि सिधुघाटी से प्राप्त अवशेषो से यह प्रमाणित हो चुका है कि प्राचीनकाल मे भी श्रमण-परम्परा के अनुयायी थे। तीर्थकर पार्श्वनाथ परम्परागत उल्लेखो के अनुसार तीर्थकर पार्श्वनाथ काशी के तत्कालीन राजा अश्वसैन के पुत्र थे। माता का नाम वामादेवी था। अश्वसैन इक्ष्वाकुवशीय क्षत्रिय थे। जैन साहित्य मे पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसैन या अस्ससैण मिलता है, किन्तु यह नाम न तो हिन्दू पुराणो मे मिलता है
SR No.538051
Book TitleAnekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1998
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size4 MB
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