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________________ अनेकान्त/१३ उक्त कतिपय उल्लेख इस बात को स्पष्ट करते है कि श्रमण जैन परम्परा के बीज प्रारम्भ से ही काशी मे पल्लवित हुए है। शिव के विषय मे भी जैन परम्परा और वैदिक परम्परा की दृष्टि से पर्यालोचन की आवश्यकता है। वैदिक परम्परा शिव को काशी का अधिष्ठातृ देव मानती है। शिव को रामायण मे महादेव, महेश्वर, शंकर तथा त्र्याम्बक के रूप मे स्मरण किया गया है तथा उन्हे सर्वोत्कृष्ट देव कहा गया है। महाभारत मे शिव को परमब्रह्म, असीम, अचिन्त्य, विश्वसृष्टा, महाभूतो का एकमात्र उद्गम, नित्य और अव्यक्त आदि कहा गया है। अश्वघोष के बुद्ध चरित्र मे शिव का वृषध्वज तथा भव के रूप मे उल्लेख हुआ है। विमलसूरि के “पउमचरिउ” के मगलाचरण के प्रसग मे एक "जिनेन्द्र रूद्राष्टक का उल्लेख आया है, जिसमे जिनेन्द्र भगवान का रुद्र के रूप मे स्तवन है। पापान्धक निर्भशं मकर ध्वजलोभमोहपुर दहनम्। तपांभरं भूषितांगं जिनेन्द्र रुद्रं सदा वन्दे॥१॥ संयम वृषभारूढं तमउग्रमह तीक्ष्ण शूलधरम्। संसार करिविदारं जिनेन्द्र रुद्रं सदा वन्दे॥२॥ अर्थात जिनेन्द्र-रुद्र पापरूपी अन्धासुर के विनाशक है। काम, लोभ एव मोह रूपी विदुर के दाहक है, उनका शरीर तम रूपी भस्म से विभूषित है, सयम रूपी वृषभ पर आरूढ़ है, ससार रूपी करि (हाथी) को विदीर्ण करने वाले है। ऐसे जिनेन्द्र रुद्र को नमस्कार करता हूँ। . शिवपुराण मे शिव का आदितीर्थकर वृषभदेव के रूप मे अवतार लेने का उल्लेख आता है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी धवला टीका मे अर्हन्तों का पौराणिक शिव के रूप मे उल्लेख करते हुए कहा है कि अर्हन्त परमेष्ठी वे हैं जिन्होने.सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूपी त्रिशूल को धारण करके मोहरूपी अन्धकासुर के कबन्ध-वृन्द का हरण कर लिया है तथा जिन्होने सम्पूर्ण आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है और दुर्नय का अन्त कर दिया है। इस ऋषभदेव और शिव को एक ही होना चाहिए। वैदिक परम्परा जहाँ शिव को त्रिशूलधारी मानती है वही जैन परम्परा में अर्हन्त की मूर्तियो को
SR No.538051
Book TitleAnekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1998
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size4 MB
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