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धर्मकीर्ति और जैन दर्शन
-उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी धर्मकीर्ति बौद्धदर्शन के सुप्रसिद्ध आचार्य हुए है, जिन्होने बौद्धदर्शन और बौद्धन्याय विषयक प्रमाणवार्तिक, न्यायबिन्दु आदि अनेक ग्रन्थो की रचना की है। आचार्य धर्मकीर्ति ने जैनदर्शन के स्याद्वाद, अनेकान्त आदि किसी भी सिद्धान्त की कभी प्रशंसा की हो, ऐसा मेरे देखने में नहीं आया है। प्रत्युत उन्होने जैनदर्शन के अनेकान्त आदि सिद्धान्तो का यथासभव निराकरण ही किया है। धर्मकीर्ति ने दिगम्बर साधुओ की भी कभी प्रशंसा नही की है, अपितु उन्हें अह्रीक (निर्लज्ज) ही कहा है। उन्होने ऋषभादि जैन तीर्थकरो को आप्त और सर्वज्ञ भी नहीं माना है।
यहाँ प्रकरण यह है कि प्राकृत-विद्या के अक्टूबर-दिसम्बर ९७ के अंक ३ मे पृष्ठ १४ पर पत्रिका के मानद सम्पादक डॉ० सुदीप जैन का “निर्ग्रन्थ प्रतिमा . परम्परा एव वैशिष्ट्य' शीर्षक एक लेख छपा है। यहाँ इस लेख के कुछ बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। १. विद्वान् लेखक डॉ० सुदीप जी ने पत्रिका के पृष्ठ १९ पर लिखा है___“वे (धर्मकीर्ति) जैनों को दिगम्बर के साथ-साथ दिन मे ही अपनी जीवनचर्या करने वाले बताते हैं- आह्नीकाः दिगम्बरा २७ । अर्थात् जैन श्रमण दिगम्बर एव आनीक (दिन में चर्या करने वाले होते है।
विद्वान् लेखक का यह कथन विचारणीय है। प्रमाणवार्तिक की किसी भी कारिका में आनीकाः दिगम्बरा' ऐसा वाक्य मुझे आज तक नहीं मिला। पता नही जैनदर्शन के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ० सुदीप जी जैन को उक्त वाक्य कौन-सी प्रमाणवार्तिक में मिल गया है और विद्वान् लेखक ने इस वाक्य का अर्थ किया है कि दिगम्बर साधु दिन में चर्या करने वाले होते हैं। यहाँ