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________________ अनेकान्त/३६ अनित्य न होय, भेद रूप होय सो अभेद रूप न होय, इत्यादि नयनि के विषयनि विषै विरोध हे, तहां जिन वचन विवक्षा तैं सत् असत् रूप, एक अनेक रूप, नित्य अनित्य रूप, भूद अभेद रूप,शुद्ध अशुद्ध रूप जैसे विद्यमान वस्तु है जैसे कहि करि विरोध मिटे है, झूठी कल्पना नाहीं करे है। तातें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोय नय में प्रयोजन वशते शुद्ध पर्यायार्थिक मुख्य करि निश्चय कहे हैं पर अशुद्ध द्रव्यार्थिक रूप पर्यायार्थिक कू गौण करि व्यवहार कहिए है ऐसे जिन वचन विर्षे जो पुरूष रमे है इस आत्मा कू यथार्थ पावे हैं।' आत्मा प्राप्ति की इस अवस्था को भाषा के द्वारा सही प्रगट करना असभव है। वह तो केवल प्रकाश है, अनन्त अनिर्वचनीय प्रकाश, शब्दातीत नयातीत। वह तो अखण्डितमनाकुल ज्वलदनन्तमत बहिर्मह है, अनुभव किया जा सकता है, पूरी तरह बताया नही जा सकता। इसलिए साधारण जन के लिए जिन वचन को प्रमाण कहा गया है जिसमे अकल लगाने की न जरूरत न इजाजत । हा, जो ज्ञान नय द्वारा अर्जित किया जाए, उसमे सवाद-परिसवाद, तर्क-वितर्क व परीक्षण किया जा सकता है। नय का अर्थ ही होता है ले जाने वाला। यह नयार्जित ज्ञान चाहे निश्चय नय द्वारा ही हो व्यवहार जन्य ही होता है और कोई भी भाषा या वचन व्यवहार पूर्ण नहीं होता । शायद यही कारण है कि केवल ज्ञान होने पर तीर्थकर मौन हो जाते है, केवल ओम यह दिव्यध्वनि ही प्रगट करते हैं। यह वह ध्वनि है जो सब ध्वनिया नि शेष हो जाने पर सुनाई देती है, बिना बजाया स्वर, अनाहत नाद! इसको किसी उदाहरण द्वारा कथन करना संभव नहीं है और जो भी लक्षण किया जाएगा वह निषेध परक ही होगा ‘एव ववहारणओ पडिसिज्जे जाण णिच्छयणएण।' व्यवहार की भाषा या व्यवहार नय के बिना किसी भी तत्त्व का निश्चय नही किया या कराया जा सकता। जब हम यह कहते हैं कि आत्मा शरीर नहीं है, आत्मा वर्ण या स्पर्श नही है तो प्रतिषेधात्मक व्यवहार की भाषा ही बोल रहे है। जब हम यह कहते हैं कि आत्मा, शुद्ध, अमूर्त, अरूप, ज्ञायक है, ज्ञाता है तब भी हम व्यवहार का ही प्रयोग करते होते हैं। अनन्त ज्ञानवान आत्मा के न इन्द्रिया है, न वहा विचार है न शब्द न क्रिया । इसलिए निश्चय नय का व्यवहार से अतीत मानवीय मस्तिष्क के लिए कोई चिन्तन सभव नहीं है और कुन्दकुन्द ने शुरू मे ही कह दिया कि व्यवहार मे ही जी रहा है। व्यवहार के बिना काम कैसे
SR No.538051
Book TitleAnekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1998
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size4 MB
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