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अनेकान्त/३५
इसको यो समझने की कोशिश करे। सौ फीसदी शुद्ध याने २४ केरट खरा सोना ही सुवर्ण है किन्तु मिलावट वाला खोटा सोना याने अशुद्ध स्वर्ण भी सोना ही तो कहलाता है। इसी अशुद्ध स्वर्ण को तपा कर शुद्ध सुवर्ण बनाया जाता है। अत पूर्ण शुद्ध और नितान्त अशुद्ध अवस्थाओ को क्या नाम दिए जाए? उनको अध्यात्म की दृष्टि से अशुद्ध ही कहा जाएगा । यो है अभूतार्थ का अर्थ असत्यार्थ, जैसा कि जयसेन ने किया है। इसका मतलब यह नहीं है कि व्यवहार नय कतई मिथ्या है या झूठा है। कहा भी है
तत्त्वं वागतिवर्ति व्यवहतमासाद्य जायते वाच्यम् गुणपर्यायादिविवृत्तः प्रसरति तच्यापि शतशाखम् मुख्योपचार विवृतिं व्यवहारोपायतो यतः सन्तः
ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्ध तत्त्वमिति व्यवहृतिः पूज्या : -तत्त्व, वचन से अतिवर्ति है, व्यवहृत का आश्रय लेकर वाच्य हो जाता है, गुणपर्यायादि के विस्तार से उसकी सैकड़ो शाखाए फैलती जाती है। इस तरह व्यवहार के उपाय से ही सन्त मुख्य और उपचार कथन को जानकर शुद्ध तत्त्व को अपनाते है, अत. व्यवहृति पूज्य है।
प० आशाधर व्यवहार को अभूतार्थ कहते हुए भी लिखते हैव्यवहार पराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति बीजादि बिना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति
जो व्यवहार से विमुख होकर निश्चय को करना चाहता है, वह मूढ़ बीज आदि (खेत, पानी) के बिना धान (सम्य) को उत्पन्न करना चाहता है। इसलिए
भूतार्थ रज्जुवत्स्वैरं विहर्तु वंशवन्मुहुः श्रेयो धीरैरभूतार्थो हेय स्तद् विहृतीश्वरैः
जैसे (नट) रस्सी पर स्वेच्छा से विहार करने के लिए बार-बार बास का सहारा लेते है (और उसमे दक्ष हो जाने पर बास का सहारा छोड़ देते है) वैसे ही धीर (मुमुक्षु) के लिए अभूतार्थ श्रेय है और भूतार्थ पाने पर व्यवहार को छोड़ देते
है।
जयचद जी ने अपनी वचनिका मे बड़े ही खूबसूरत तरीके से इस बात को यो समझाया है
‘जिन वचन स्याद्वाद रूप है, सो जहा दोय नय कै विषय का विरोध है, जैसे सद्रूप होय सो असद्रूप न होय, एक होय सो अनेक न होय, नित्य होय सो