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अनेकान्त/24 कारण उन व्याकरणों के रचे जाने के काल और उनके स्वरूप पर ध्यान देने से स्पष्ट समझ में आ जाता है। वे व्याकरण उसकाल में लिखे गए जब विद्वत्समाज में प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत का अधिक प्रचार और सम्मान था। वे लिखे भी संस्कृत भाषा में गए हैं तथा उनका उद्देश्य भी संस्कृत के विद्वानों को प्राकृत का स्वरूप समझाना है, जिनका उपयोग उन्हें संस्कृत नाटकों में भी प्राकृतिकता रखने के लिए करना पड़ता था। ........... ... अतएव उन वैयाकरणों ने संस्कृत को आदर्श ठहरा कर उससे जो विशेषताएँ प्राकृत में थीं उनका विवरण उपस्थित कर दिया और इसकी सार्थकता-संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहकर सिद्ध कर दी।
-हिन्दी विश्वकोश, खंड 7 पृष्ठ 497 डॉ. नेमीचंद, आरा ने स्पष्ट ही लिखा है कि-'प्राकृत भाषा में ईस्वी सन् की प्रथम द्वितीय शताब्दी तक उपभाषाओं के भेद दिखलाई नहीं पड़ते।'मध्ययुगी प्राकृत का सबसे प्राचीन व्याकरण चण्डकृत प्राकृत लक्षण' है। यह अत्यंत संक्षिप्त है। -प्रा.भा आलोचनात्मक इतिहास ।
स्मरण रहे कि इतिहासज्ञो ने चण्ड और वररुचि आदि वैयाकरणों का काल ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी के बाद का माना है और यही काल संस्कृत भाषा में रचित व्याकरणों की रचना का प्रारम्भिक काल है। इन वैयाकरणो ने जैसा कि हिन्दीविश्वकोशकार ने लिखा है। सस्कृतज्ञो के परिचितार्थ सस्कृत मे प्राकृत व्याकरणो का निर्माण किया। सभी वैयाकरणों ने विस्तृत और अभेदप्राकृत को देश-भेद की अपेक्षा विविध शब्द रूपो में विभक्त कर दिया। यथा मगध में बोली जाने वाली शब्दावलि को मागघी, शूरसेन जनपद में बोली जाने वाली शब्दावलि को शोरसेनी व महाराष्ट्र की बोली को महाराष्ट्री प्राकृत आदि के नाम से संबोधित किया। इसका तात्पर्य ऐसा है कि उसकाल से पूर्व प्राकृत भाषा सामान्य रूप में व्यवहृत होती थी। क्योंकि स्वाभाविक बोली से व्याकरण का संबध नहीं है। बोली पहिले होती है और उसका व्याकरण बाद में बनाया जाता है।
उक्त स्थिति में जो लोग प्राकृत सामान्य को किसी एकरूप में बाँधना चाहते थे, वे स्वयं ही स्व-निर्मित नियमों में संदेहशील थे। फलतः उन्होंने नियमों के लागू करने में 'प्रायः, बहुल, क्वचित्, वा' इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने 'बहुलम्' जैसे सूत्र देकर स्वयं स्पष्ट कर दिया है कि हम जिन नियमों को दे रहे है वे नियम सर्वथा ही सर्वत्र नहीं होते अर्थात् चूंकि ऋषियों की भाषा आर्ष कहलाती है और आर्ष में शब्दरूपों की बहुलता होती है। यानी
__ "क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्य एव।'
कहीं नियम प्रवृत्त होता है, कहीं प्रवृत्त नहीं होता, कहीं कोई नियम विकल्प से होता है और कहीं नियम के विपरीत भी होता है और यही आर्ष प्राकृत का प्राचीनतमरूप है। उक्त कथन से सिद्ध है कि प्राकृत भाषा किसी व्याकरण से बद्ध नहीं है-वह स्वाभाविक बोली है। नमि साधु ने कहा भी है