SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत भाषा - ले. पद्मचन्द्र शास्त्री 'संपादक' 'जयदु जिणंदाण असेसभासपरिणामिणी वाणी' समस्त भाषाओं में परिणमन करनेवाली जिनेन्द्र की वाणी जयवंत होवे । 'देसविसेसपसिद्धीइ भण्णमाणा अणतया हुंति । तम्हा अणाइपाइअपयट्टमासाविसेसओ देसी ।।' देश विशेषाणामनन्तत्वात्पुरूषायुषेणापि न सर्वसंग्रह स्यात् । तस्मादनादिप्रवृत्तप्राकृतभाषाविशेष एवायं देशी शब्देनोच्यते ।' प्रदेश अनन्त हैं और पुरूष की पूर्ण आयु में भी सर्व (भाषाओं) का संग्रह नहीं हो सकता : इसलिए अनादिकाल से प्रवृत्त प्राकृत भाषा विशेष ही देशी (भाषा) शब्द से कही गई है। अर्थात् विभिन्न देशों की प्रकृति प्रदत्त भाषाएँ ही प्राकृत हैं - सभी को अभेदरूप से देशी भाषा कहा गया है। । । देसी नाममाला।। और 'देसी शब्दों के रूप बदलते नहीं हैं - प्राकृत विद्या 8/1 पृ. 20 उक्त कथन से स्पष्ट है कि प्राकृत भाषा के प्रचलित अन्य भेद - तद्भव और तत्सम आदि मूल - प्राकृत के नहीं हैं और ये बाद की उपज हैं। क्योंकि अनादि प्राकृत भाषा - अन्यभाषाओं के उद्भव - पूर्व होने से किसी अन्यभाषा से उत्पन्न अथवा किसी भाषा के सम नहीं हो सकती । अतः प्राकृतभाषा में तद्भव या तत्सम भेद नहीं हो सकते और यदि भेद माने जाते हैं तो प्राकृत को अनादिप्रवृत्त भाषा नहीं माना जा सकता । वस्तु स्थिति ऐसी है कि उक्त 'तद्भव' और 'तत्सम' जैसे भेद संस्कृत वैयाकरणों द्वारा तब स्थापित किए गए जब उन्होंने प्राकृत से अनभिज्ञ संस्कृतज्ञों को संस्कृत के शब्दों द्वारा प्राकृत शब्दों को निष्पन्न करने की विधि समझाने का प्रयत्न किया और इसी हेतु उन्हे संस्कृत भाषा में नियम देने पड़े। इस विधि में जो शब्द उन्हें संस्कृत से समान दिखे उन्हें 'तत्सम' कह दिया और जिन शब्दों को उन्होंने संस्कृत से निष्पन्न किया उन्हें 'तद्भव' कह दिया । इसी दृष्टि से आचार्य हेमचंद ने 'प्रकृतिः संस्कृतम्' जैसा सूत्र दिया। अर्थात् हमारे द्वारा रचित व्याकरणमें प्राकृत शब्दों के ज्ञान में संस्कृत - आधार भाषा है। ऐसा उनका मन्तव्य है । ऐसे कथन से उन लोगों के भ्रम का उच्छेद हो जाता है जो संस्कृत भाषा को प्राकृत भाषा से प्राचीन मानते हों। विश्वहिन्दी कोशकार ने इस विषय को स्पष्ट ही कर दिया 'तब प्राकृत के वैयाकरणों ने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति क्यों कहा? इसका
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy